SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समान रूप से चित्रित किए गए हैं। एक ओर विजय यात्रा के प्रसंग में आए अनेक तालाब, नदी, पर्वत आदि के काव्यात्मक चित्रण हैं, तो दूसरी ओर शत्रु पक्ष की विधवाओं के मार्मिक विलाप का जीवंत वर्णन भी प्रस्तुत हुआ है। ऋतु, वन, पर्वत, सरोवर, संध्या आदि के अलंकृत वर्णनों तथा प्रकृति-चित्रण की सजीवता के कारण ही यह उत्कृष्ट महाकाव्य कहलाता है। रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, व्यंगोक्ति, दृष्टान्त आदि अलंकारों का आद्योपांत चारु विन्यास है। राजघराने के आतंक को व्यंगोक्ति के माध्यम से स्पष्ट करने वाला यह पद दृष्टव्य है पत्थिवघरेसु गुणिणोवि णाम जड़ को वि सावयासव्व । जणसामण्णं तं ताण किं पि अण्णं चिय निमित्तं ।। (गा. 876 ) अर्थात् – यदि कोई गुणी व्यक्ति राजमहलों में पहुँच जाता है, तो इसका कारण यही हो सकता है कि जन साधारण की वहाँ तक पहुँच है अथवा अन्य कोई कारण होगा, उसके गुण तो इसमें कदापि कारण नहीं हो सकते हैं। कुमारवालचरियं कुमारवालचरियं को द्वयाश्रयकाव्य भी कहा गया है । द्वयाश्रयकाव्य के रचयिता 12 वीं शताब्दी के वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र हैं । इस काव्य में आचार्य ने राजा कुमारपाल के चरित वर्णन के माध्यम से प्राकृत व्याकरण के नियमों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । द्वयाश्रयकाव्य होने के कारण इसमें व्याकरण के नियमों के साथ-साथ काव्य-तत्त्व भी प्रचुरता से विद्यमान हैं। यह महाकाव्य दो विभागों में है। प्रथम विभाग के 20 सर्गों में सिद्धहेमशब्दानुशासन के प्रारम्भिक सात अध्यायों में वर्णित संस्कृत व्याकरण के नियमों को समझाया गया है। दूसरे विभाग में आठ सर्ग हैं, जिनमें आठवें अध्याय में वर्णित प्राकृत व्याकरण के नियमों को समझाया गया है। दूसरे विभाग के प्रथम छः सर्गों में महाराष्ट्री प्राकृत के नियम समझाये गये हैं तथा शेष दो सर्गों में शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका - पैशाची और अपभ्रंश भाषा के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। इस महाकाव्य की कथावस्तु अत्यंत लघु है। राजा कुमारपाल के एक दिन की घटनाओं को विभिन्न अलंकृत वर्णनों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। नायक के समग्र जीवन का 91
SR No.091017
Book TitlePrakrit Sahitya ki Roop Rekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages173
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy