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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन ६६ छठे अध्ययन का नाम धूत अध्ययन है। इसके पाँच उद्देशक हैं। धूत का अर्थ है किसी भी वस्तु पर लगे हुए मैल को दूर कर उसे स्वच्छ बनाना । प्रस्तुत अध्ययन में तप-संयम की साधना से आत्मा पर लगे हुए कर्ममल को दूर करके आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रगट करने की प्रक्रिया बताई है। जैसे सेवाल से आच्छादित जलाशय का कछुआ बाहर की वस्तुओं को व बाहर जाने के मार्ग को निहार नहीं सकता वैसे ही मोहासक्त व्यक्ति सत्य मार्ग को देख नहीं सकता और न उस पथ पर चल ही सकता है। अतः साधक को मोह एवं आसक्ति से सदा-सर्वदा बचना चाहिए । द्वितीय उद्देशक में यह बताया गया है कि जो साधक परीषहों से भयभीत होकर साधुत्व एवं संयम साधना में सहायक वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंछण, रजोहरणादि धर्मोपकरणों का परित्याग कर देते हैं वे दीर्घकाल तक परिभ्रमण करते हैं किन्तु जो साधक परीषहों को समभावपूर्वक सहन करते हैं और संयम साधना में तल्लीन रहते हैं वे निर्वाण को प्राप्त होते हैं। तृतीय उद्देशक में साधक को यह उपदेश दिया है कि धर्मोपकरणों के अतिरिक्त जितने भी अन्य उपकरण हैं उन्हें कर्मबंधन का कारण समझे । साधक के अन्तर्मानस में ये विचार कभी भी उद्भुत नहीं होने चाहिए कि मेरे वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हो चुके हैं, अब मुझे नए वस्त्र की अन्वेषणा करनी चाहिए या सुई और धागे से इन पुराने वस्त्रों को सीना चाहिए। वह तो यह चिन्तन करता है कि वे महापुरुष, जिन्होंने निर्वस्त्र रहकर और कठिन परीषों को सहन कर लम्बे समय तक साधना की थी मेरे आदर्श हैं और मैं भी उन्हीं के पदचिह्नों पर चलकर अपनी साधना को निखार सकता। भयंकर उपसर्गों को सहन करते रहने से और तप से साधक की भुजाएं अत्यन्त कुश हो जायें, मांस व रुधिर स्वल्प मात्रा में भी न रहे; तब भी वह राग-द्वेष न कर समभाव में अवस्थित रहे तभी वह निर्वाण को प्राप्त होता है । 1 चतुर्थ उद्देशक में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि जो श्रमण ज्ञान व क्रिया दोनों से भ्रष्ट हो जाता है वह संसार में बिना पतवार की नौका की तरह भटकता रहता है। अतः साधक को सदा जाग्रत रहकर ज्ञान और क्रिया द्वारा मुक्तिपथ पर अपने दृढ़ कदम बढ़ाने चाहिए। पंचम उद्देशक में उपदेष्टा के लक्षणों का विश्लेषण करते हुए कहा है। कि उपदेष्टा को कष्टसहिष्णु, वेदविद् अर्थात् आगमज्ञान में निष्णात या
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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