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________________ ६८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा करना चाहते हैं, कोई भी मरना पसन्द नहीं करता। अतः सच्चा श्रमण किसी भी जीव की हिंसा न करे और हिंसाजन्य पाप से सदा अलग-थलग रहे। तृतीय उद्देशक में साधक को यह उद्बोधन दिया गया है कि सर्वथा अपरिग्रही रहकर वह अपने विकारों पर विजय प्राप्त करे। बाह्य-युद्ध एक प्रकार से अनार्य युद्ध है। उस युद्ध से कर्मबन्धन होता है । किन्तु विकार आदि शत्रुओं को जीतना यह सच्चा युद्ध है और यही आर्य युद्ध है। .. चतुर्थ उद्देशक में श्रमण के लिए एकाकी विचरण वर्जनीय बताया है। जो वय व ज्ञान की दृष्टि से अपरिपक्व है या परीषहों को सहन करने में अक्षम है उसे तो एकाकी विचरण करना ही नहीं चाहिए किन्तु सोलह बर्ष की अवस्था से ऊपर का व्यक्ति अवस्था से व्यक्त होता है और नवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु को जानने वाला ज्ञान से व्यक्त होता है। जो मुनि ज्ञान और अवस्था दोनों से ही व्यक्त होता है वह प्रयोजनवश अकेला विहार कर सकता है। पंचम उद्देशक में आचार्य की तुलना ऐसे निर्मल जलाशय से की गई है जो निर्मल नीर से समस्त जलचर जन्तुओं की रक्षा करता हुआ समभूमि में अवस्थित है। इसी प्रकार आचार्य भी ज्ञान एवं सद्गुणों के नीर से भरे हुए उपशांत मन व इन्द्रियों को वश में रखने वाले प्रबुद्ध, तत्त्वज्ञ होते हैं और श्रुत से 'स्व' और 'पर' का कल्याण करते हैं। जो साधक संशय रहित होकर सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित तत्वज्ञान को सत्य समझकर तदनुसार आचरण करता है वह समाधि को प्राप्त करता है। इसमें बताया गया है कि-'हे साधक ! जिसे तू मारने योग्य समझता है, वह तू ही है । जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। अतः न स्वयं हनन करो न दूसरों से करवाओ।' स्पष्ट है, किसी भी प्राणी के वध, बंधन व पीड़न आदि का चिंतन करना वस्तुतः वह स्वयं का वध, बन्धन व पीड़न करना है। किसी को कष्ट देने का संकल्प करना भी आत्म-गुणों का हनन करना है और आत्म-गुणों का हनन करना आत्मघात के तुल्य है। छठे उद्देशक में इस बात पर बल दिया गया है कि सर्वज्ञ के द्वारा प्ररूपित संयमधर्म का पालन कर साधक सर्व कर्मबंधनों को नष्ट कर देता है एवं शुद्ध-बुद्ध और मुक्त हो जाता है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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