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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन ६७ में प्रसुप्त व्यक्ति के महान दुःखों का वर्णन है। तृतीय उद्देशक में चित्तशुद्धि की वृद्धि करने की प्रेरणा दी गई है और चतुर्थ उद्देशक में कषाय परिहार कर संयमोत्कर्ष करना चाहिए, इस पर बल दिया गया है। चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्यक्त्व है। इसके चार उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में अहिंसा धर्म की स्थापना कर सम्यक्त्ववाद का प्ररूपण किया है। द्वितीय उद्देशक में जो हिंसा की स्थापना करते हैं उन्हें अनार्य कहा गया है और अहिंसा धर्म का आराधन करने वाला आर्य है, यह प्रतिपादित किया गया है । तृतीय उद्देशक में तप का निरूपण है। तप से चित्त की शुद्धि और गुणों की अभिवृद्धि होती है और चतुर्थ उद्देशक में सम्यक्त्व की उपलब्धि के लिए प्रयत्न करने का उपदेश है । जिज्ञासा हो सकती है-साधक को किस पर श्रद्धा रखनी चाहिए ? प्रस्तुत जिज्ञासा का समाधान इस अध्ययन में किया गया है कि अतीत, अनागत और वर्तमान में होने वाले समस्त तीर्थङ्करों का एक ही उपदेश है कि सर्वसत्त्व, सर्वभूत, सर्वजीव और सर्वप्राणों की हिंसा मत करो। उन्हें पीड़ा या संताप एवं परिताप मत दो-यही धर्म शुद्ध है, नित्य है, ध्रुव है शाश्वत है। इस दृष्टि से सम्यक्त्व का अर्थ है-अहिंसा, दया, सत्य प्रभृति सद्गुणों पर दृढ़ निष्ठा रखना और उनका यथाशक्ति आचरण करने का प्रयास करना। चारों उद्देशकों का यह क्रम नियुक्ति एवं वत्ति में भी निर्दिष्ट है और यही क्रम आज भी आचारांग में उपलब्ध है। पांचवें अध्ययन का नाम लोकसार अध्ययन है। इसमें छह उद्देशक हैं । इस अध्ययन में आदि, मध्य और अन्त में 'आवन्ती' शब्द प्रयुक्त हुआ है, अतः इसका अपर नाम 'आवन्ती' अध्ययन भी है। इसमें समग्र लोक के सारभूत तत्त्व का नाम धर्म बताया है और धर्म का सार ज्ञान है। ज्ञान का सार संयम है और संयम का सार मोक्ष प्रतिपादित किया गया है। . प्रथम उद्देशक में भव-भ्रमण और कर्मबंधन का मूल कारण प्राणी-हिंसा बताया है। जो किसी प्रयोजन से या बिना प्रयोजन की हिंसा करता है वह विश्व में असीम दुःखों का अनुभव करता है। हिंसादिक का बिना परित्याग किये कोई भी प्राणी संसार-सागर को पार नहीं कर सकता। द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि इस विराट विश्व में जितने भी प्राणी हैं वे सभी जीना चाहते हैं, सभी अपने जीवन को आनन्दमय व्यतीत
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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