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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन
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सम्मत आवंती
सम्मत लोगसार
धुत
धुय
विमोहायण
महापरिणा उवहाणसुय
विमोक्ख महपरिणा
उवहाणसुय आचारांग के पांचवें अध्ययन का नाम 'लोगसार' है। समवायान में जो आवन्ती नाम आया है वह आदि पद के कारण से है। अनुयोगद्वार में यह उदाहरण के रूप में दिया है। आचारांग नियुक्ति में भी आवंती को आदान-पद नाम और लोगसार (लोकसार) को गौण नाम दिया है।
तत्त्वार्थ राजवातिक में आचार्य अकलंक ने आचारांग का समग्र विषय चर्याविधान बताया है और मूलाराधना में अपराजितसूरि ने आचारांग को रत्नत्रयी के आचरण का प्रतिपादक कहा है।
जैन साहित्य में आचार शब्द व्यापक अर्थ में व्यवहृत हुआ है। आचारांग की व्याख्या में आचार के पाँच प्रकार बताये हैं.---(१) ज्ञानाचार, (२) दर्शनाचार, (३) चारित्राचार, (४) तपाचार, और (५) वीर्याचार। आचारांग में पांच आचारों का निरूपण है। आचार साधना का प्राण है, मुक्ति का मूल है।
१ से किं ते आयाण पएणं ? (धम्मो मंगल, चूलिया) आवंती............। तत्र
आवंतीत्याचारस्य पंचमाध्ययनं, तत्र शादाबेद-'आवम्ती केयावती' स्यालापको विद्यत इत्यादानपदेनतन्नाम ।
-अनुयोगद्वार सूत्र ३०, वृत्तिपत्र १३० २ आयाणपएणावंति, गोण्णनामेण लोगसारुत्ति । . ..
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-आचारोग नियुक्ति, गाथा २३८ ३ आचारे चविधानं शुद्ध यष्टक पंचसमितित्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते।
-तस्वार्थ राजवातिक १२ ४ रत्नत्रयाचरणनिरूपणपरतया प्रथम भंगमाचार शब्देनोच्यते।
-मूलाराधना, आश्वास २, श्लो १३०-विजेयोबया ५ समवायाङ्ग प्रकीर्णक, समवायाङ्ग सू०८६.........