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________________ अनन्तरागम और परम्परागम ।१० आगम के अर्थरूप और सूत्ररूप ये दो प्रकार हैं। तीर्थकर प्रभु अर्थरूप आगम का उपदेश करते हैं अतः अर्थरूप आगम तीर्थंकरों का आत्मागम कहलाता है क्योंकि वह अर्थागम उनका स्वयं का है, दूसरों से उन्होंने नहीं लिया है किन्तु वही अर्थागम गणधरों ने तीर्थंकरों से प्राप्त किया है। गणधर और तीर्थकर के बीच किसी तीसरे व्यक्ति का व्यवधान नहीं है एतदर्थ गणधरों के लिए वह अर्थागम अनन्तरागम कहलाता है किन्तु उस अर्थागम के आधार से स्वयं गणधर सूत्ररूप रचना करते हैं । १५ इसलिए सूत्रागम गणधरों के लिए आत्मागम कहलाता है । गणधरों के साक्षात् शिष्यों को गणधरों से सूत्रागम सीधा ही प्राप्त होता है, उनके मध्य में कोई भी व्यवधान नहीं होता। इसलिए उन शिष्यों के लिए सूत्रागम अनन्तरागम है किन्तु अर्थागम तो परम्परागम ही है क्योंकि वह उन्होंने अपने धर्मगुरु गणधरों से प्राप्त किया है। किन्तु वह गणधरों को भी आत्मागम नहीं था। उन्होंने तीर्थंकरों से प्राप्त किया था। गणधरों के प्रशिष्य और उनकी परम्परा में होने वाले अन्य शिष्य और प्रशिष्यों के लिए सूत्र और अर्थ परम्परागम है।१२ श्रमण भगवान महावीर के पावन प्रवचनों का सूत्र रूप में संकलन-आकलन गणधरों ने किया, वह अंग-साहित्य के नाम से विश्रुत हुआ। उसके आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, भगवती, ज्ञाता, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद ये बारह विभाग हैं। दृष्टिबाद का एक विभाग पूर्व साहित्य है। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार गणधरों ने अहंभाषित मातृकापदों के आधार से चतुर्दश शास्त्रों का निर्माण किया, जिसमें सम्पूर्ण श्रुत की अबतारणा की गई। ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूर्व के नाम से विश्रुत हुए। इन पूर्वो की विश्लेषण १० अहवा आगमे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-अत्तागमे, अणंतरागमे परंपरागमे य -अनुयोगद्वार सूत्र ४७०, पृ० १७६ ११ (क) श्रीचन्द्रीया संग्रहणी गा० ११२ (ख) आवश्यकनियुक्ति गा०६२ १२ तित्थगराणं अत्थस्स अत्तागमे, गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे अस्थस्स अणंतरागमे गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अत्थस्स परंपरागमे तेणं परं सत्तस्स वि अस्थस्स वि णो अत्तागमे णो अणंतरागमे, परम्परागमे -अनुयोगद्वार ४७०, पृ० १७६ १३ धम्मोवाओ पवयणमहवा पुवाई देसया तस्स । सव्व जिणाण गणहरा, चोहसपुव्वा उ ते तस्स ॥ सामाइयाइया वा वयजीवनिकायमावणा पढमं । एसो धम्मोवादो जिणेहिं सब्बेहि उवइट्रो॥ ----आवश्यकनियुक्ति गा० २९२-२६३
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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