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________________ पद्धति अत्यधिक क्लिष्ट थी अत: जो महान् प्रतिभासम्पन्न साधक थे उन्हीं के लिए वह पूर्व साहित्य ग्राह्य था। जो साधारण प्रतिभासम्पन्न साधक थे उनके लिए एवं स्त्रियों के उपकारार्थ द्वादशांगी की रचना की गई। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने लिखा है कि दृष्टिवाद का अध्ययन-पठन स्त्रियों के लिए वयं था। क्योंकि स्त्रियाँ तुच्छ स्वभाव की होती हैं, उन्हें शीघ्र ही गर्व आता है। उनकी इन्द्रियाँ चंचल होती हैं। उनकी मेधा-शक्ति पुरुषों की अपेक्षा दुर्बल होती है एतदर्थ उत्थान-समुत्थान प्रभृति अतिशय या चमत्कार युक्त अध्ययन और दृष्टिवाद का ज्ञान उनके लिए नहीं है ।१४ - मलधारी आचार्य हेमचन्द्र ने प्रस्तुत विषय का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि स्त्रियों को यदि किसी तरह दृष्टिवाद का अध्ययन करा दिया जाए तो तुच्छ प्रकृति के कारण 'मैं दृष्टिवाद की अध्येता हूँ' इस प्रकार मन में अहंकार आकर पुरुष के परिभव-तिरस्कार प्रभृति में प्रवृत्त हो जाये जिससे उसकी दुर्गति हो सकती है एतदर्थ दया के अवतार महान् परोपकारी तीर्थंकरों ने उत्थान, समुत्थान, आदि अतिशय चमत्कार युक्त अध्ययन एवं दृष्टिवाद का अध्ययन स्त्रियों के लिए निषेध किया ।१४ बहत्कल्पनियुक्ति में भी यही बात आई है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने और मलधारी हेमचन्द्र ने स्त्रियों की प्रकृति की विकृति व मेधा की दुर्बलता के सम्बन्ध में लिखा है वह पूर्ण संगत नहीं लगता है। वे बातें पुरुष में भी सम्भव है। अनेक स्त्रियाँ पुरुषों से भी अधिक प्रतिभासम्पन्न व गम्भीर होती हैं। यह शास्त्र में आये हुए वर्णनों से भी स्पष्ट है। जब स्त्री अध्यात्म-साधना का सर्वोच्चपद तीर्थकर नामकर्म का अनुबन्धन कर सकती है, केवलज्ञान प्राप्त कर सकती है तब दृष्टिवाद के अध्ययनार्थ जिन दुर्बलताओं की ओर संकेत किया गया है और जिन दुर्बलताओं के कारण स्त्रियों को दृष्टिवाद की अधिकारिणी नहीं माना गया है उन पर विज्ञों को तटस्थ दृष्टि से गम्भीर चिन्तन करना चाहिए। मेरी दृष्टि से पूर्व-साहित्य का ज्ञान लब्ध्यात्मक था। उस ज्ञान को प्राप्त १४ तुच्छा गारवबहुला चलि दिया दुब्बला धिईए य । इति आइसेसज्झयणा भूयावाओ य नो स्थीण ।। -विशेषावश्यकभाष्य गा०५५२ - १५ ." इह विचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात् तेषां च दुर्मेधत्वात् स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानाधिकार एव तासां तुच्छत्वादि दोषबहुलत्वात् ---विशेषावश्यकभाष्य गाथा ५५ की व्याख्या पृ०४८ प्रकाशक--आगमोदय समिति बम्बई
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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