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________________ ६. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा 'अन्त में उन्होंने अपना यह स्पष्ट मन्तव्य व्यक्त किया है कि आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध द्वादशाङ्गी का अभिन्न अङ्ग होने से इसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर हैं और सूत्र के रचयिता गणधर हैं। आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं वे उपेक्षणीय नहीं हैं। प्रबुद्ध पाठकों को उन पर चिन्तन करने की यथेष्ट प्रेरणा है। इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त न कर, मैंने दोनों ही प्रकार के विचार पाठकों के समक्ष रख दिये हैं । अत: मैं पाठक वर्ग से यह निवेदन करना चाहूँगा कि पूर्वाग्रह से मुक्त होकर वे इस विषय पर तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करें जिससे सत्य तथ्य का परिज्ञान हो सके। यह पूर्णतया सत्य सिद्ध हो चुका है कि आचारांग आगम साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन है। उसमें वर्णित आचार मूलभूत है और वह महावीर युग के अधिक सन्निकट है। आचारांग में वर्णित आचार का विकास ही उसके पश्चात् रचित आगम ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। आचारांग में आचार के साथ ही सम्पूर्ण दार्शनिक तथ्यों का निरूपण भी हआ है। उसमें श्रद्धा और तर्क दोनों का सुन्दर समन्वय है। विषय वस्तु ... समवायांग' और नन्दी सूत्र में आचारांग का जो विवरण दिया गया है, वह इस प्रकार है आचार, गोचर, विनय, वैनयिक (विनय का फल), स्थान (उत्थितासन, निषण्णासन और शयितासन) गमन, चंक्रमण, भोजन आदि की मात्रा, स्वाध्याय आदि में योग-नियुंजन, भाषासमिति, गुप्ति, शय्या, उपाधि, भक्त-पान, उद्गम-उत्थान, एषणा आदि की शुद्धि, शुद्धाशुद्ध ग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तप, उपधान आदि । प्रशमरतिप्रकरण में आचारांग के प्रत्येक अध्ययन का विषय संक्षेप में इस प्रकार दिया है : (१) षड् जीवनिकाय की यतना। १ समवायाङ्ग प्रकीर्णक समवाय सूत्र ८६ २ नन्दीसूत्र ८० ३ प्रशमरतिप्रकरण ११४-११७, आचार्य उमास्वाति ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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