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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन
तक की संख्या का प्रतिपादन है वहाँ भी प्रथम चार पूर्वो की चूलिकाएँ बताई हैं किन्तु आचारांग की चूलिकाओं का निर्देश नहीं है । अत: यह स्पष्ट है कि चार पूर्वो के अतिरिक्त किसी भी आगम की चूलिकाएँ नहीं थीं ।
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आचारांग और आचारप्रकल्प ये दोनों एक नहीं हैं, क्योंकि आचारांग कहीं से निर्यढ़ नहीं किया गया है जबकि आचारप्रकल्प प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु आचार नामक बीसवें प्राभृत से उद्धृत है । इस सत्य को नियुक्ति, चूर्णि व वृत्ति सभी ने स्वीकार किया है जो साध्वाचार के लिए परमोपयोगी होने से चूला न होने पर भी उसे चूला के रूप में स्थान दिया गया । समवायाङ्ग में 'आयारस्स भगवओ सचूलियागस्स" जो पाठ है वह इस बात की ओर संकेत करता है। संभव है इसी चूलिका शब्द प्रयोग के कारण यह सन्देहास्पद स्थिति समुत्पन्न हुई जिसके फलस्वरूप पद संख्या विषयक, और चूलिका विषयक आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध को आचारांग से भिन्न, आचारांग की चूलिकाएं, आचाराग्र एवं आचारांग का परिशिष्ट मानने के लिए नियुक्तिकार को कल्पना करनी पड़ी हो।
आगे भाषा के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए उन्होंने लिखा है कि दोनों श्रुतस्कन्धों की शैली एवं भाषा में द्विरूपता देखकर विशों को यह भ्रम हो गया है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध से पश्चात्वर्ती काल की कृति है किन्तु यह तर्क युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि आगम साहित्य में समास और व्यास ये दोनों प्रकार की वर्णन शैलियाँ प्राप्त होती हैं। सूत्र शैली में दार्शनिक एवं तात्विक विवेचन की प्रधानता होने से भाव, भाषा और शैली में क्लिष्टता होना स्वाभाविक है किन्तु व्यास शैली में साधक को साधना की बात समझाने का लक्ष्य होने से उसे सरल रूप से और व्याख्यात्मक ढंग से समझाया जाता है। अतः यह शैली सुगम व सरल होती है । शैली में जैसा अन्तर आचारांग के प्रथम व द्वितीय श्रुतस्कन्ध में है वैसा ही अन्तर ज्ञाताधर्मकथा के प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भी है।
१ आचारपकप्पोउ पच्चक्खाणस्स तइयवत्थूओ । आचारणामधेज्जा, विसदमा पाहुडच्छेया ॥
- आचारांग नियुक्ति, अ ०२