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५४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा उन सूत्रों का अर्थागम अत्यधिक विस्तृत था। उस अर्थागम को आचार्य भद्रबाहु ने सूत्रागम का रूप देकर उसको चूला के रूप में स्थापित कर दिया। निशीथ का अपर नाम आचारकल्प है। वह आचार से निढ़ नहीं है, किन्तु पूर्व साहित्य में जो आचार-वस्तु थी उससे वह निर्यढ़ है। आचाराग्र तो आचार से ही निर्यढ़ माना गया है।
. प्रथम दो चूलाओं में सात-सात अध्ययन हैं, तीसरी और चौथी चूला में एक-एक अध्ययन है। इसका रहस्य यह है कि प्रथम चूला में सात अध्ययनों में से पांच अध्ययनों का निर्यहण स्थल समान है। पांचवें और छठे अध्ययन का निर्यहण स्थल पृथक्-पृथक् रहा है तथापि विषय साम्य की दृष्टि से उन्हें एक चूला में रखा गया है। प्रथम चूला के सातों अध्ययन ईर्या, भाषा और एषणा से सम्बन्धित हैं अतः उन्हें एक चूला में वर्गीकरण करके रखा गया है। दूसरी चूला के सातों अध्ययन आचार के एक अध्ययन से निषूढ़ हैं अत: उन्हें एक ही चूला में रखा गया है। तीसरी चूला में पन्द्रहवाँ अध्ययन और चौथी चूला में सोलहवां अध्ययन भी एक-एक चूला से निर्यढ़ हैं अत: उन्हें एक-एक चूला में रखा गया है।
आचारप्रकल्प (निशीथ) के बीस उद्देशक हैं। वह पांचवीं चूला है।
एक प्रश्न है कि पांचों चूलाओं के निर्माता एक ही व्यक्ति हैं या पृथक्-पृथक व्यक्ति हैं क्योंकि आचारांग नियुक्ति में 'स्थविर' शब्द का प्रयोग बहुवचन में हुआ है। उसके आधार से आचार-चूला के रचयिता अनेक व्यक्ति होने चाहिए। उत्तर है-स्थविर शब्द का प्रयोग बहुवचन में हुआ है यह सत्य है, पर वह सम्मान सूचक है अत: उसका रचयिता एक ही होना चाहिए।
आचारांग में पिण्डैषणा प्रभृति के नियम इधर-उधर बिखरे हुए थे। उनका प्रतिपादन अर्थागम के द्वारा होता था। आचरांग चूणि से यह स्पष्ट है कि आचार चूला एक विषय के बिखरे हुए अर्थों का संकलन है। जिन विषयों का आचार चूला में निषेध है उन्हीं दोषों का प्रायश्चित विधान निशीथ में किया गया है। अतः यह मानना अधिक तर्कसंगत लगता है कि
१ आचारांग नियुक्ति, गा० २८७ २ पिडीकृतो पृथक्-पृथक् पिंडस्स पिंडेसणासु कतो, सेज्जत्थो सेज्जासु, एवं सेसाणवि ।
-आचारांग चूणि पृ. ३२६