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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १ हैं। पहली पद्धति के अनुसार हर एक वाक्य या गाथा अपने आप में पूर्ण होती है। पहले या अन्तिम वाक्य व गाथा से उसकी सम्बन्ध-योजना नहीं होती। किन्तु दूसरी पद्धति में प्रत्येक वाक्य या श्लोक की पूर्व या अन्तिम वाक्य या गाथा के साथ सम्बन्ध-योजना होती है।
आचारांग की व्याख्या यदि छिन्नच्छेदनयिक पद्धति से की जाय तो वाक्यों में विसंवाद ज्ञात होगा। यदि अच्छिन्नच्छेदनयिक पद्धति से व्याख्या की जाय तो उसमें कहीं पर भी विसंवाद ज्ञात नहीं होगा।
आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की रचना शैली से आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की रचना शैली सर्वथा भिन्न है। इतिहासवेत्ताओं की मान्यता है कि इसकी रचना आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के उत्तरकाल में हुई है। आचारांग नियुक्ति में द्वितीय श्रुतस्कन्ध (आचारचूला) को स्थविरकृत माना है। चूर्णिकार ने स्थविर का अर्थ गणधर किया है और वृत्तिकार ने चतुर्दशपूर्व विद् किया है। पर स्थविर का नाम नहीं दिया है।
विज्ञों का ऐसा अभिमत है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध का गहन अर्थ स्पष्ट हो जाये, एतदर्थ भद्रबाहु स्वामी ने आचारांग का अर्थ आचारान में प्रविभक्त किया है। आचारांग नियुक्ति में पांच चूलाओं के निर्युहण स्थलों का संकेत किया है । वह चार्ट इस प्रकार है
१ आचारांग नियुक्ति, गा० २८७ २ आचारांग चूणि, पृ० ३२६ ३ आचारांग वृत्ति, पत्र २६०
बिइअस्स य पंचमए अट्ठमंगस्स बिइयंमि उद्देसे । माणिओ पिंडो सिज्जा, वस्थं पाउग्गहो चेव ।। पंचमंगस्स चउत्थे इरिया वणिज्जई समासेणं । छट्ठस्स य. पंचमए मासज्जायं वियाणाहि ।। सत्तिक्कगाणि सत्तवि, निज्जूढाई महापरिनाओ। सत्थपरिना भावण, निजूढाबो धुयविमुत्ती ।। आयारपकप्पो पुण पच्चक्खाण तइयवत्थुओ। आयारनामधिज्जा, बीसइमा पाहुडकछेया ।।
-आचारांग नियुक्ति, गा० २५८-२६१