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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन જા समवायाङ्ग की वृत्ति में आचार्य अभयदेव ने और नन्दीसूत्र की वृत्ति में आचार्य मलयगिरि ने उपर्युक्त मान्यता के समर्थन में अपना अभिमत व्यक्त करने के पश्चात् लिखा है कि आचारांग स्थापना की दृष्टि से प्रथम अंग है और रचना क्रम की दृष्टि से बारहवाँ अंग है, और दूसरी दृष्टि से रचना-क्रम और स्थापना क्रम दोनों ही दृष्टियों से आचारांग प्रथम अंग है । ये दोनों धाराएँ अभयदेव व मलयगिरि से पहले ही प्रचलित थीं । अंग पूर्वो से निर्यूढ़ हैं, इस दृष्टि से देखें तो आचारांग स्थापना क्रम की दृष्टि से प्रथम अंग है किन्तु रचनाक्रम की दृष्टि से नहीं । त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र 3, महावीर चरियं आदि से परिज्ञात होता है कि श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि गणधरों को सर्वप्रथम 'उप्पन्नेइ वा, विगमे वा, धुवेद वा यह त्रिपदी प्रदान की और उन्होंने इस त्रिपदी से पहले चौदह पूर्वो की रचना की और उसके पश्चात् द्वादशांगी की रचना की । गणधरों ने द्वादशाङ्गी से पहले पूर्वो की रचना की अतः उन्हें पूर्व कहा गया। प्रश्न है कि जब पूर्वो की रचना अंगों से पहले हुई तो द्वादशांगी की रचना में आचारांग का प्रथम स्थान किस प्रकार है ? उत्तर है—-पूर्वो की प्रथम रचना होने पर भी आचारांग का द्वादशाङ्गी के क्रम में प्रथम स्थान मानने में बाधा नहीं है चूंकि बारहवाँ अंग दृष्टिवाद है न कि पूर्व हैं। पूर्व तो दृष्टिवाद के पाँच विभागों में से एक विभाग है । सर्वप्रथम गणधरों ने पूर्वो की रचना की किन्तु बारहवें अंग दृष्टिवाद का अवशेष बहुत बड़े भाग का ग्रथन तो आचारांग आदि के क्रम से बारहवें स्थान पर ही हुआ है। ऐसा कहीं पर भी उल्लेख नहीं है कि दृष्टिवाद का सर्वप्रथम ग्रथन किया हो । अतः नियुक्तिकार का प्रस्तुत कथन सत्य प्रतीत होता है कि रचना व स्थापना दोनों ही दृष्टि से आचारांग का द्वादशाङ्गी में प्रथम स्थान 1 १ समवायांग वृत्ति अभयदेव सूरि, पत्र १९६१ २ नन्दी मलयगिरि वृत्ति, पृ० ४८१ ३ त्रिषष्टि० १०।५।१६५ ४ (क) महावीर चरियं ८।२५७ गुणचन्द्र (ख) दर्शन - रत्न रत्नाकर पत्र ४०३।१ ५. परिकर्म-सूत्र पूर्वानुयोग- पूर्वगत-चूलिकाः पंचस्युष्टिवादभेदा: पूर्वाणि चतुर्दशापि पूर्वगते || -अभिधान चिन्तामणि १६०
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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