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४८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा श्रमण की उपस्थापना की जाती थी, और आचारांग के अध्ययन से ही श्रमण पिण्डकल्पी यानि भिक्षा लाने के योग्य बनता था। आचारांग के अध्ययन से श्रमणधर्म का परिज्ञान होता है अत: आचारधर को प्रथम गणिस्थान कहा गया है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आचारधर ही आचार्य होने का प्रथम कारण है।
द्वादशांगी में आचारांग का प्रथम स्थान है। नियुक्तिकार भद्रबाह ने लिखा है कि तीर्थङ्कर भगवान सर्वप्रथम आचारांग का और उसके पश्चात् शेष अंगों का प्रवर्तन करते हैं।
. आचारांग चूर्णि' व वृत्ति में आचारांग की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है-अनन्त अतीत में जितने भी तीर्थकर हुए हैं उन सबने सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश दिया । वर्तमान काल में जो तीर्थङ्कर महाविदेह क्षेत्र में विराजमान हैं वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देते हैं और अनागत अनन्तकाल में जितने भी तीर्थकर होने वाले हैं वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देंगे, उसके पश्चात् शेष अंगों का । गणघर भी इसी क्रम का अनुसरण करते हुए इसी क्रम से द्वादशांगी को गुम्फित करते हैं।
१ व्यवहारमाष्य ३।१७४-१७५ २ आयारम्मि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ।' .. तम्हा आयारधरो, मण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ।।-आचारांग नियुक्ति, मा० १० ३ (क) से णं अंगठ्याए पढमे । -समवायांग प्रकीर्णक समवाय सूत्र १
(ख) स्थापनामधिकृत्य प्रथममंगम् । -नन्दी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २११ (ग) गणधराः पुनः सूत्ररचना विदधतः आचारादिक्रमेण विदधाति स्थापयन्ति वा।
__ -नन्बी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २४० ४ सम्वेसिमायारो तित्यस्स पवत्तणे पढ़मयाए। .. .
सेसाई अंगाई एक्कारस अणुपुब्वीए॥ -आचारांग नियुक्ति सव्व तित्थयरा वि य आयारस्स अत्यं पढम आइक्खंति ततो सेसंगाणं एक्कारसण्हं अंगाणं ताए चेव परिवाडीए गणहरा वि सुत्तं गुथति ।
-आचारांग चूणि, पृ०३ ६ कदा पुनर्भगवताचारः प्रणीतः इत्यथ आह सव्वेसिमित्यादिसर्वेषां तीर्थकराणां
तीर्थप्रवर्तनादावाचारार्थः प्रथमतयाभूद् भवति, भविष्यति च ततः शेषांगार्थ इति गणधरा अप्यनयवानुपूर्व्या सूत्रतया अथ्नन्ति इति ।
-आचारांग, शीलाङ्काचार्य वृत्ति, पृ०६