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पारिभाषिक शब्द कोश ७०५ नियमित अर्थ को कहने में समर्थ है एवं शब्द और अर्थ के विकल्प से युक्त है, वह भावश्रुत है ।
भाव प्रतिक्रमण-दोष विशुद्धि के लिए की गई आत्म-निन्दा व आलोचना । भाषा-पर्याप्ति भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप परिणमन करे और उसका आधार लेकर अनेक प्रकार की ध्वनि रूप में छोड़ना भाषा पर्याप्त है।
भोग परिभोग परिमाण व्रत- भोगलिप्सा को नियन्त्रित करने के लिए भोग एवं परिभोग की वस्तुओं के ग्रहण को सीमित करना ।
भोगान्तराय कर्मभोग के साधन उपलब्ध होने पर भी जिस कर्म के उदय से जीव भोग्य वस्तुओं का भोग न कर सके ।
(म)
मतिज्ञान- इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्य होने वाला ज्ञान ।
मन विचार करने का - मनन करने का साधन, मन कहलाता है ।
मनः पर्यवज्ञान इन्द्रिय और मन की अपेक्षा न रखते हुए मानव लोक के
संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानना मनः पर्यवज्ञान है । अथवा मन के चिन्तनीय परिणामों को जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष किया जाता है, वह मनः पर्यवज्ञान है ।
मनोगुप्ति-मन की प्रवृत्ति का गोपन करना मनोगुप्ति है ।
मान जिस दोष से नमने की वृत्ति न हो; जाति, कुल, तप आदि के अहंकार से दूसरे के प्रति तिरस्कार की वृत्ति हो, वह मान है ।
माया --विचार और प्रवृत्ति में एकरूपता का अभाव माया है ।
मार्गणास्थान जिन-जिन के द्वारा जीवों का अन्वेषण किया जाय वे सब धर्म मार्गणा हैं जैसे इन्द्रिय, काय, योग, कषाय आदि ।
मारणान्तिक समुद्धात मरण से पूर्व उस निमित्त जो समुद्घात होता है वह मारणान्तिक समुद्घात है ।
मिध्यात्व मोहनीय-जिसके उदय से जीव को तत्त्वों के स्वरूप की यथार्थं रुचि न हो वह मिथ्यात्व मोहनीय है। इसमें मिथ्यात्व के अशुद्ध दलिक होते हैं । मिश्र-साधक की तृतीय भूमि जिसमें मिथ्यात्व के अर्द्ध शुद्ध पुद्गलों का उदय होने से जब जीव की दृष्टि कुछ सम्यक् और कुछ मिथ्या अर्थात् मिश्र हो जाती है ।
मोक्ष- सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना ।
मोहनीय कर्म जीव को स्व-पर- विवेक तथा स्वरूपरमण में बाधा पहुँचाने वाला कर्म अथवा आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करने वाले कर्म को मोहनीय कर्म कहते हैं ।
(य)
यथाख्यातसंयम समस्त मोहनीय कर्म के उपशम या क्षय से जैसा आत्मा
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