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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट
का स्वरूप बताया गया है उस अवस्था रूप वीतराग संयम को यथाख्यात संयम कहा गया है।
यथाप्रवृत्तिकरण-जिस परिणाम शुद्धि के कारण जीव आयु कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक कोडाकोडी सागरोपम जितनी कर देता है जिसमें करण से पहले के समान की अवस्था बनी रहे उसे यथाप्रवृत्तिकरण कहा है।
योग-साध्वाचार का सम्यक् प्रकार से पालन करना अथवा आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन होने को योग कहते हैं। अथवा आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन, मन-वचन
और काय के द्वारा होता है अतः मन, वचन और काय के कर्म व्यापार को अथवा नामकर्म की पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय से युक्त जीव की कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति योग है।
पोजन-चार कोस या चार हजार कोस का एक योजन होता है।
रसघात----बँधे हुए जानावरण आदि कर्मों की फल देने की तीव्र शक्ति को अपवर्तनाकरण द्वारा बन्द कर देना।
रसबन्ध-जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-पुद्गलों में फल देने की न्यूनाधिक शक्ति का होना।
राजु-प्रमाणांगुल से निष्पन्न असंख्यात कोटाकोटि योजन का एक राजु होता है । अथवा श्रेणी के सातवें भाग को राजु कहते हैं ।
रोचक सम्यक्त्व-जिनोक्त क्रियाओं में रुचि रखना रोचक सम्यक्त्व कहलाता है।
लब्धि-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम को लब्धि कहते हैं।
लेश्या-जीव के ऐसे परिणाम जिनके द्वारा आत्मा कों से लिप्त हो अथवा कषायोदय से अनुरक्त जीव की प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है।
लोभ-धन आदि की तीव्र आकांक्षा या गृद्धता अथवा अनुराग बुद्धि लोभ है ।
वर्गणा-समान जातीय पुद्गलों का समूह ।
वेदनीय-सुख-दुःख की कारणभूत बाह्य सामग्री के संयोग-वियोग में हेतु रूप कर्म ।
विपाक---कर्म-प्रकृति की विशिष्ट अथवा विविध प्रकार की फल देने की शक्ति को और फल देने में अभिमुख होने को विपाक कहते हैं।
विपुलमति मनःपर्यवज्ञान-चिन्तनीय वस्तु की पर्यायों को विविध विशेषताओं से सहित स्पष्ट रूप से जानना विपुलमति मनःपर्यवज्ञान कहलाता है।