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________________ पारिभाषिक शब्द कोश पर्याप्त—जो जीव आहार आदि छह पर्याप्तियों से परिपूर्ण हो चुके हैं, वे पर्याप्त या पर्याप्त कहलाते हैं । पर्याप्ति आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन की शक्तियों की उत्पत्ति का जो कारण है, वह पर्याप्त है । पर्यायार्थिक नय -- जिस नय का प्रयोजन पर्याय है अर्थात् जो पर्याय को विषय करता है, वह पर्यायार्थिक नय है । पल्योपम — एक योजन विस्तीर्ण व गहरे गड्ढे को एक दिन के उत्पन्न बालक के बालाग्र कोटियों से भरकर और उसके बाद सौ-सौ वर्ष में एक-एक बालाय को निकालने में जितना काल लगता है उतने काल को एक पल्योपम कहते हैं । ७०३ पार्थिवी धारणा ध्यान की अवस्था में मध्य लोक के बराबर क्षीर सागर, उसके मध्य में जम्बूद्वीप के प्रमाण वाले सहस्रपत्रमय सुवर्ण कमल, उसके पराग समूह के भीतर पीली कान्ति से युक्त सुमेरु के प्रमाण कणिका और उसके ऊपर एक श्वेत वर्ण के सिहासन पर स्थित होकर कर्मों को नष्ट करने में उद्यत आत्मा का चिन्तन करना पार्थिवी धारणा है । पार्श्वस्थ—जो आत्म-हितकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और प्रवचन के पार्श्व में विहार करता है, उनके पूर्णतया पालन करने में प्रयत्नशील नहीं रहता है, वह पार्श्वस्थ मुनि कहलाता है। पिण्डस्थ ध्यान अपने शरीर में पुरुष के आकार जो निर्मल गुणवाला जीवप्रदेशों का समुदाय स्थित है उसके चिन्तन का नाम पिण्डस्थ ध्यान है । दूसरे शब्दों में नाभिकमल आदि रूप स्थानों में जो इष्ट देवता का ध्यान किया जाता है वह पिण्डस्थ ध्यान है । पुण्य-- जिस कर्म के उदय से जीव को सुख का अनुभव होता है वह पुण्य है। पुद्गल स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश, परमाणु, ये रूपी हैं। इन रूपी द्रव्य को पुद्गल कहते हैं । पुद्गल परावर्तन -- ग्रहण योग्य आठ वर्गणाओं (औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस शरीर, भाषा, श्वासोच्छ्वास, मन, कार्मणवर्गणा ) में से आहारकशरीरवर्गणा को छोड़कर शेष औदारिक आदि वर्गणाओं से रूपी द्रव्यों को ग्रहण करते हुए एक जीव द्वारा समस्त लोकाकाश के पुद्गलों को स्पर्श करना । पूर्व-सत्तर लाख करोड़ और छप्पन हजार करोड़ वर्ष का प्रमाण एक पूर्व होता है। पृथिवीकायिक- जो जीव पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से पृथिवी को शरीर रूप में ग्रहण करता है। पंशुन्य किसी के दोषों को उसकी अनुपस्थिति में प्रगट करना पैशुन्य है ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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