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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट
'पद्मलेश्या -- त्यागी, भद्रपरिणामी, पवित्र, सरल व्यवहार करने वाला एवं गुरुजनों की अर्चा में निरत रहने वाला, ये पद्म लेश्या के बाह्य लक्षण हैं ।
पद्मासनजंघा के मध्य भाग में जहाँ जंघा से संश्लेश ( सम्बन्ध) होता है, वह पद्मासन है ।
पर-परिवाद अन्य जनों के बिखरे हुए गुण-दोषों के कहने को पर परिवाद कहते हैं ।
परमाणु - समस्त स्कन्धों के अन्तिम भेद रूप होता हुआ एक, अविभागी, free, रूपादि परिणाम से उत्पन्न होने के कारण सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य परमाणु है । परमात्मा सम्पूर्ण दोषों से रहित, केवलज्ञानादि रूप शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है ।
परमेष्ठी मुमुक्षु के लिए परम इष्ट व मंगलस्वरूप अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु |
परलोक मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होने वाला अन्य भव ।
परसमय आत्म स्वरूप के अतिरिक्त अन्य पदार्थों में या अन्य भावों में इष्ट, अनिष्ट की कल्पना करने वाला ( मिथ्यादृष्टि ) एवं अन्य मत को मानना । परिग्रह 'यह मेरा है' इस प्रकार की जो ममत्व बुद्धि होती है वह परिग्रह है।
परिणाम अध्यवसाय विशेष का नाम परिणाम है।
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परिभोग—— जिसे एक बार भोगकर छोड़ दिया जाता है और पुनः उसे भोगा जाता है वह परिभोग है जैसे आच्छादन, वस्त्र, आभूषण, घर आदि ।
परिव्राजक जो 'परि' सब ओर पापों के परित्याग के साथ 'व्रजति' जाता हैप्रवृत्ति करता है, वह परिव्राजक है ।
परीषह मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए भूखप्यास आदि को सहन करना ।
परीत संसार जिसने सम्यक्त्व आदि के द्वारा अपने संसार को परिमित कर दिया है, वह संसार-परीत या परीत-संसारी हो जाता है। वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल और उत्कृष्ट अनन्त काल कुछ कम अपार्ध पुद्गल परावर्तनकाल तक ही संसार में रहता है - तत्पश्चात् नियमतः मुक्त होता है ।
परुष - जो वचन रूखा, स्नेह से रहित (निष्ठुर ) होता है और दूसरे जीवों को कष्ट पहुँचाता है, वह परुष है।
'परोक्ष-अक्ष जीव को कहते हैं। जीव के द्वारा सीधा ज्ञान न होकर इन्द्रिय और मन के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह परोक्ष है।
पर्यासन- दोनों जांघों के नीचे के भाग, पाँवों के ऊपर करके नाभि के पास वाम हथेली के ऊपर दक्षिण हथेली के रखने पर पर्यकासन होता है।