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________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट 'पद्मलेश्या -- त्यागी, भद्रपरिणामी, पवित्र, सरल व्यवहार करने वाला एवं गुरुजनों की अर्चा में निरत रहने वाला, ये पद्म लेश्या के बाह्य लक्षण हैं । पद्मासनजंघा के मध्य भाग में जहाँ जंघा से संश्लेश ( सम्बन्ध) होता है, वह पद्मासन है । पर-परिवाद अन्य जनों के बिखरे हुए गुण-दोषों के कहने को पर परिवाद कहते हैं । परमाणु - समस्त स्कन्धों के अन्तिम भेद रूप होता हुआ एक, अविभागी, free, रूपादि परिणाम से उत्पन्न होने के कारण सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य परमाणु है । परमात्मा सम्पूर्ण दोषों से रहित, केवलज्ञानादि रूप शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है । परमेष्ठी मुमुक्षु के लिए परम इष्ट व मंगलस्वरूप अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधु | परलोक मृत्यु के पश्चात् प्राप्त होने वाला अन्य भव । परसमय आत्म स्वरूप के अतिरिक्त अन्य पदार्थों में या अन्य भावों में इष्ट, अनिष्ट की कल्पना करने वाला ( मिथ्यादृष्टि ) एवं अन्य मत को मानना । परिग्रह 'यह मेरा है' इस प्रकार की जो ममत्व बुद्धि होती है वह परिग्रह है। परिणाम अध्यवसाय विशेष का नाम परिणाम है। ७०२ परिभोग—— जिसे एक बार भोगकर छोड़ दिया जाता है और पुनः उसे भोगा जाता है वह परिभोग है जैसे आच्छादन, वस्त्र, आभूषण, घर आदि । परिव्राजक जो 'परि' सब ओर पापों के परित्याग के साथ 'व्रजति' जाता हैप्रवृत्ति करता है, वह परिव्राजक है । परीषह मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के लिए भूखप्यास आदि को सहन करना । परीत संसार जिसने सम्यक्त्व आदि के द्वारा अपने संसार को परिमित कर दिया है, वह संसार-परीत या परीत-संसारी हो जाता है। वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल और उत्कृष्ट अनन्त काल कुछ कम अपार्ध पुद्गल परावर्तनकाल तक ही संसार में रहता है - तत्पश्चात् नियमतः मुक्त होता है । परुष - जो वचन रूखा, स्नेह से रहित (निष्ठुर ) होता है और दूसरे जीवों को कष्ट पहुँचाता है, वह परुष है। 'परोक्ष-अक्ष जीव को कहते हैं। जीव के द्वारा सीधा ज्ञान न होकर इन्द्रिय और मन के द्वारा जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह परोक्ष है। पर्यासन- दोनों जांघों के नीचे के भाग, पाँवों के ऊपर करके नाभि के पास वाम हथेली के ऊपर दक्षिण हथेली के रखने पर पर्यकासन होता है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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