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________________ पारिभाषिक शब्द कोश ७०१ जीव-अजीव पदार्थ आदि का जो आत्मसंगत मति से परोपदेश निरपेक्ष जातिस्मरण आदि रूप प्रतिभा से स्वयं श्रद्धान करता है, वह निसर्ग सम्यग्दर्शन है। निव-मान, अभिमान वश ज्ञानदाता गुरु का नाम छिपाना, अमुक विषय को जानते हुए भी मैं नहीं जानता ऐसा कहना, अथवा गुरु से प्राप्त ज्ञान को विपरीत अभिनिवेश के कारण कुछ का कुछ कहना, आदि निह्नव कहलाता है। नीच गोत्र-जिस कर्म के उदय से लोक निन्दित कुलों में जन्म हो वह नीच गोत्र है। नंगमनय.....संकल्प मात्र के आधार पर गत पदार्थ को अथवा अनिष्पन्न अथवा अर्द्ध निष्पन्न पदार्थ को वर्तमान में अवस्थित या निष्पन्न करना। " नैष्ठिक श्रावक-जो निष्ठापूर्वक धर्म का आचरण करता है वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। उसकी धर्म के विषय में निर्वाहकरूप निष्ठा रहती है, इसी से वह निरतिचार श्रावकधर्म का परिपालन करता है। नैसगिक सम्यग्दर्शन----दर्शनमोह के उपशम, क्षय, क्षयोपशम के होने पर जो सम्यग्दर्शन बाह्य उपदेश के बिना प्रादुर्भूत होता है वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन है। न्याया-ज्ञेय का अनुसरण करने वाला अथवा न्याय रूप होने से सिद्धांत को न्याय कहा जाता है। प्रमाण से प्रमेय की संगतिरूप युक्ति को न्याय कहते हैं। न्यास----जीवादि पदार्थों के जानने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते है। पक्ष-पन्द्रह दिन-रात को पक्ष कहते हैं । अर्थात् प्रत्यक्षादि के द्वारा जिसका निराकरण नहीं किया गया है ऐसे साध्य (अनुमेय) की स्वीकारता को पक्ष कहा जाता है । दूसरे शब्दों में धर्म और धर्मी के समुदाय को पक्ष कहते हैं। पक्षधर्मता-हेतु के पक्ष में रहने को पक्ष-धर्मता कहते हैं। पंचेन्द्रिय----जो पांच इन्द्रियों से युक्त है। पण्डित----जो पाप से डीन---दूर रहता है, उसे पण्डित कहते हैं अथवा पण्डा नाम बुद्धि का है उससे जो युक्त है वह पण्डित है । पंण्डितमरण-पण्डितों का-संयतों का-मरण पण्डितमरण है। सभ्यक्थद्धा और चारित्र एवं विवेकपूर्वक मरण पण्डितमरण है। पद-वर्गों के समुदाय को पद कहा जाता है। पदसम---जो नामिक आदि पद जिस स्वर में उतरने वाला हो वह पदसम कहलाता है। पदस्थ-ध्यान-पवित्र पदों का आलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है वह पदस्थ ध्यान है । अथवा स्वाध्याय, मंत्र, गुरु या देव की स्तुति में जो चित्त की एकाग्रता हो वह पदस्थ-ध्यान है। पा-मुवा-कमल के आकार दोनों हाथों को करके उनके बीच में कणिका के आकार दोनों अंगूठों की रचना करना पम-मुद्रा है ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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