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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट
खाने से भोजन सुस्वादु बनता है वह विकृति है। इस प्रकार की विकृति से रहित भोजन निविकृति है।
निविश्यमानपरिहारविशुद्धिक-परिहार एक तपविशेष है, उससे विशुद्धि को प्राप्त चारित्र परिहारविशुद्धिक कहलाता है। जो उस चारित्र का सेवन कर रहे हैं, उनको तथा उनसे अभिन्न उस चारित्र को भी निविश्यमानक परिहारविशुद्धिक कहते हैं।
निवृत्ति (इन्द्रिय)-कर्म के द्वारा जिसकी रचना की जाती है उसे निर्वृत्ति कहा जाता है । चक्षु आदि इन्द्रियों की पुतली आदि के आकार रूप रचना होने को निवृत्ति कहते है।
निर्वेद-नरक, निर्यच अवस्था और कुमानुष पर्याय इन्हें निर्वेद कहा जाता है; तथा संसार, शरीर और इन्द्रियभोगों से होने वाली विरक्ति को भी निर्वेद कहते हैं।
निवेदनीकथा----संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न करने वाली कथा निवेदनी है।
निर्व्याघातपादपोपगमन-दीक्षा, शिक्षा, या पद आदि के क्रम से जिसका शरीर वृद्धपन से जर्जरित हो गया है वह निर्व्याघातपादपोपगमन अनशन करता है। वह चारों प्रकार के आहार का परित्याग कर जीव-जन्तुरहित शुद्ध भूमि का आश्रय लेता है और वहाँ पर पादप (वृक्ष) के समान एक पार्श्वभाग से पड़कर हलन-चलन से रहित होता हुआ प्रशस्त ध्यान में मन को तब तक लगाता है जब तक कि प्राण नहीं निकलते । यह निर्व्याघातपादपोपगमन नामक अनशन है।
निहारिम-जो मरण वसति के एक देश में किया जाता है वह निहारिम पादोपगमन है क्योंकि वहाँ से इसके निर्जीव शरीर का निर्हरण किया जाता है ।
निर्वृत्ति गुणस्थान-बादर कषाय से युक्त होते हुए अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रविष्ट जीवों के परिणाम चूंकि परस्पर में निवर्तमान होते हैं, अतः यह गुणस्थान बादर निर्वृत्तिगुणस्थान कहा जाता है।
, निश्चयनय-शुद्ध द्रव्य के निरूपण करने वाले नय को निश्चयनय या शुद्ध नय कहते हैं।
. निश्चय सम्यक्त्व---आत्मा के शुद्ध स्वरूप का श्रद्धान करना, यह निश्चय सम्यक्त्व है।
निश्चयसम्यग्ज्ञान---भूतार्थ स्वरूप से जाने गये जीवादि पदार्थों को समीचीन बोध द्वारा शुक्त आत्मा से भिन्न जानना यह निश्चय सम्यग्ज्ञान है।
निशीथ---जिसका पाठ व उपदेश एकान्त में किया जाता है, ऐसे प्रच्छन्न श्रुत को निशीथ कहा है।
निसर्ग सम्यग्दर्शन-निसर्ग नाम स्वभाव का है। यथार्थ स्वरूप से जाने गये