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________________ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट तर्कशास्त्र — जो दुर्गम मिथ्यामत रूप महान कीचड़ के सुखा देने में सूर्य के समान समर्थ होता है, वह तर्कशास्त्र है । तलवर --- प्रसन्न हुए राजा के द्वारा दिये गये सुवर्णमय पट्टबन्ध से जो भूषित होता है, वह तलवर है । तापस- जटाधारी वनवासी पंचाग्नि तप करने वाले साधुओं को तापस कहा गया है । ६६६ तिर्यगायु जिस कर्म के उदय से जीव का तिर्यञ्च पर्याय में अवस्थान होता है वह तिर्यगा कर्म है । तिर्यग - जिनमें मन-वचन काया की विरूपता होती है, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ प्रगट हैं, जो अतिशय अज्ञानी हैं, तथा अत्यन्त पापी हैं वे तिर्यग कहलाते हैं। तिर्यग्लोक - एक लाख योजन के सातवें भाग मात्र सूची अंगुल के बाहल्य रूप जग प्रतर को तिर्यग्लोक कहते हैं। तीर्थ श्रावक-श्राविका, श्रमण श्रमणी इस चतुविध संघ को तीर्थ कहा जाता है। तीर्थंकर जो अनुपम पराक्रम के धारक, क्रोधादि कषायों के उच्छेदक, अपरिमित ज्ञानी - केवलज्ञान से सम्पन्न, संसार समुद्र के पारंगत, सुगति-गतिगत उत्तम पंचम गति को प्राप्त सिद्धिपथ के उपदेशक हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं । तीर्थकर नामकर्म - जिस कर्म के उदय से दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप तीर्थ का प्रवर्तन किया जाता है । आक्षेप, संक्षेप, संवेग एवं निर्वेद द्वार से भव्यजनों की सिद्धि के लिए मुनिधर्म व गृहस्थधर्म का उपदेश दिया जाता है; तथा सुरेन्द्र एवं चक्रवर्ती से पूजित होता है, उसे तीर्थंकर नामकर्म कहा जाता है । तेजस समुधात जीवों के अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ ऐसे तेजस् शरीर के कारणभूत समुद्घात को तेजस् समुद्घात कहते हैं । स- त्रस नामकर्म का उदय जिन जीवों को होता है, वे जीव स कहलाते हैं । त्रुटिताङ्ग चौरासी लाख पूर्व वर्षों को एक त्रुटितांग कहते हैं । (द) दसि - हाथ के थाल आदि से अखण्ड धारा पूर्वक जो भिक्षा गिरती है उसे दत्ति कहते हैं । भिक्षा का विच्छेद होने पर पात्र में एक कण गिर जाय तो भी दत्ति मानी जाती है। इस प्रकार दसियों की संख्या के अनुसार भोजन ग्रहण करना । दया प्राणियों के प्रति अनुकम्पा करने को उनके दुःख को देखकर स्वयं दुःख का अनुभव करना और उनकी रक्षा करने की भावना हृदय में आना, दया है। दर्शन आप्त, आगम और पदार्थों में जो रुचि होती है उसे दर्शन कहते हैं । रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और दर्शन ये समानार्थक शब्द हैं।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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