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जीव के स्वभावको गुण कहते हैं, और उनके स्थान के उत्कर्ष एवं अपकर्षजन्य स्वरूप विशेष का भेद गुणस्थान है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो, दर्शनमोहनीय आदि कर्मों के उदय, उपशम, क्षयोपशम, आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव लक्षित होते हैं, उन भावों को गुणस्थान कहते हैं।
गुप्ति-सम्यग्दर्शन पूर्वक मन, वचन एवं काय योगों के निग्रह करने को गुप्ति कहते हैं।
गृहस्थ......श्रावकोचित नित्य एवं नैमित्तिक अनुष्ठानों को करने वाले मानवों को गृहस्थ कहा है।
गोत्र----जिसके द्वारा जीव ऊँच और नीच कहा जाता है, यह गोत्र कर्म है । ग्रन्थ.....जिसके द्वारा अथवा जिसमें अर्थ को गूंथा जाता है वह ग्रन्थ है।
प्रन्थि-जैसे किसी वृक्ष विशेष की कठोर गाँठ अतिशय दुर्भेद्य होती है उसी प्रकार कर्मोदय से उत्पन्न जो जीव के घनीभूत राग-द्वेष परिणाम उस गाँठ के सदृश दुर्भेद्य होते हैं अतः उन्हें ग्रन्थि कहा है।
जवेयक... लोक रूप पुरुष के ग्रीवा स्थान पर अवस्थित विमानों को वेयक कहते हैं।
'घातिकर्म-केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व व चारित्र, एवं वीर्य रूप जीव गुणों के घातक ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म धातिकर्म हैं।
- चक्रवर्ती-षटखण्ड भरत क्षेत्र के अधिपति एवं बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं के स्वामी चक्रवर्ती हैं।
चक्ष वर्शन--चक्षु के द्वारा होने वाले पदार्थ के सामान्य धर्म के बोध को चक्षुदर्शन कहा है।
चतुर्विशतिस्तव-चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति !
चन्नप्रज्ञप्ति---चन्द्रमा के विमान, आयुप्रमाण, परिवार, चन्द्र का गमनविशेष, उससे उत्पन्न होने वाले दिन-रात्रि का प्रमाण आदि की जिसमें प्ररूपणा है।
चरणानुयोग----गृहस्थ एवं श्रमणों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि एवं रक्षा के विधान करने वाले अनुयोग को चरणानुयोग कहा है।
चारित्र-----हिसा आदि की निवृत्ति और समता आदि में प्रवत्ति। ... चारित्र मोहनीय--जिस कर्म से चारित्र विकृत होता है, वह चारित्र मोहनीय है।
च्यवन......वैमानिक और ज्योतिषी देवों के मरण को च्यवन या च्युति कहा है।