SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 722
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पारिभाषिक शब्द कोश ६६३ ऐसा मानव जहाँ केवली भगवान विराजमान हैं वहाँ मोह की क्षपणा को प्रारम्भ करता है पर निष्ठापक वह चारों गतियों में से किसी भी गति में हो सकता है, अर्थात सातों प्रकृतियों का पर्णतया क्षय करके सम्यक्त्व प्राप्त करने वाला जीव । क्षायोपशमिक शान----मतिज्ञानावरणादि और बीर्यान्तराय कर्म के सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयाभावी क्षय से तथा अनुदय प्राप्त उन्हीं के सदवस्था रूप उपशम से होने वाले मतिज्ञान आदि ज्ञानों को क्षायोपशमिक ज्ञान कहा है। क्षीणकषाय-जिसकी सभी कषायें नष्ट हो चुकी हैं। वह स्फटिकमणिमय पात्र में स्थित जल के समान निर्मल मन की परिणति से .सहित हुआ है, वह क्षीण कषाय है। गच्छ---एक आचार्य के नेतृत्व में रहने वाले श्रमणों के समूह को गच्छ कहते हैं। . गण---जो श्रमण स्थविर मर्यादा के उपदेशक या श्रुत में वृद्ध होते हैं, उनके समूह को गण कहा जाता है। गणधर-जो गण का रक्षण करता है और अनुपम ज्ञान-दर्शनादि रूप धर्मगुण को धारण करता है, वह गणधर है। गणी-----ग्यारह अंगों के ज्ञाता को गणी कहते हैं; अथवा जो गच्छ का स्वामी हो, वह गणी है। .. गण्डिका-एक वक्तव्यता रूप अर्थाधिकार से अनुगत वाक्य पद्धतियों को गण्डिका कहते हैं। गण्डिकानुयोग...--गण्डिकाओं के अर्थ की कथन विधि गण्डिकानुयोग है। गति-गति नामकर्म के उदय से जो चेष्टा निर्मित होती है वह गति है। जिससे जीव मनुष्य, तिर्यच, देव या नारक व्यवहार का अधिकारी कहलाता है वह गति है अथवा चारों गतियों में गमन करने के कारण को भी गति कहते हैं। गर्भजन्मा-गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीवों को गर्भजन्मा कहते हैं। गर्हा-दूसरों के समक्ष जो आत्मनिन्दा की जाती है, वह गर्हा है । गव्यूत-दो हजार धनुष को गव्यूत (कोश) कहते हैं। गुण---जो द्रव्य के आश्रय से रहा करते हैं तथा स्वयं अन्य गुणों से रहित होते हैं, वे गुण हैं। गुणवत-अणुव्रतों के उपकारक होने से दिग्वत, अनर्थदण्डव्रत, भोगोपभोग परिमाण व्रत को गुणव्रत कहा गया है। गुणवेणि-परिणामों की विशुद्धि की वृद्धि से अपवर्तनाकरण के द्वारा उपरितन स्थिति से हीन करके अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रति समय उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित वृद्धि के क्रम से कर्म-प्रदेशों की निर्जरा के लिए जो रचना होती है, वह गुणश्रेणी है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy