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- जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन ४३ पुस्तक लिखना संयम-विराधना का कारण है । (२) पुस्तकों को एक ग्राम से दूसरे ग्राम ले जाते समय कन्धे छिल जाते हैं, व्रण हो जाते हैं। (३) उनके छिद्रों की सम्यक प्रकार से प्रतिलेखना नहीं हो सकती। (४) मार्ग में वजन बढ़ जाता है। (५) कुन्थु आदि स जीवों का आश्रय होने से अधिकरण हैं या चोर आदि के चुराये जाने पर अधिकरण हो जाते हैं। (६) तीर्थंकरों ने पुस्तक नामक उपाधि रखने की अनुमति नहीं दी है। (७) पुस्तकें पास में होने से स्वाध्याय में प्रमाद होता है। अतः साधु जितनी बार पुस्तकों को बांधते हैं, खोलते हैं और अक्षर लिखते हैं, उन्हें उतने ही चतुर्लधुकों का प्रायश्चित्त आता है और आज्ञा आदि दोष लगते हैं। यही कारण है कि लेखनकला का परिज्ञान होने पर भी आगमों का लेखन नहीं किया गया था। साधु के लिए स्वाध्याय और ध्यान का विधान मिलता है, पर कहीं पर भी लिखने का विधान प्राप्त नहीं होता। ध्यान कोष्ठोपगत, स्वाध्याय और ध्यानरक्त पदों की तरह 'लेखरक्त' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। परन्तु पूर्वाचार्यों ने आगमों का विच्छेद न हो जाय एतदर्थ लेखन का और पुस्तक रखने का विधान किया और आगम लिखे ।
जैनागमों का आलेखन यदि इसी शताब्दी में प्रारंभ हआ तो वैदिक ग्रन्थ भी गुप्त काल में ही लिपिबद्ध हुए थे। भारतीय संस्कृति के विभिन्न
१ (क) संघ सं अपहिलेहा, मारो अहिकरणमेव अविदिल्लं संकामण पलिमंथो, पमाए
परिकम्मण लिहणा ।-१४७ बृहत्कल्प नियुक्ति उ० ७३ (ख) पोत्यएसु घेप्पंतएसु असंजमो भव । -वशव० चूर्णि, पृ० २१ (ग) ननु-पूर्व पुस्तकनिरपेक्षव सिद्धान्तादिवाचनाऽभूत्, साम्प्रतं पुस्तक-संग्रहः
क्रियते साधुभिस्तत् कथं संपतिमंगति ? उच्यते पुस्तक-ग्रहणं तु कारणिक नत्वोसर्गिकम् । अन्यथा तु पुस्तक ग्रहणे भूयांसो दोषाः प्रतिपादिताः सन्ति ।
-विशेष शतक ३६ २ (क) जत्तियमेत्ता वारा उ मुंचई-बंधई व जति वारा जति अक्खराणि लिहति व
तति लहंगा जंच अवज्जे। बहत्कल्पभाष्य उ०३, गा० ३८३१ (ख) निशीथ भाष्य, उ० १२, मा० ४००८ । (ग) यावतो वारान् तत्पुस्तकं बध्नाति, मुंचति वा अक्षराणि वा लिखति तावन्ति
चतुर्लधूनि आज्ञादयश्च दोषाः। -बृहत्कल्प नियुक्ति, ३ उ०। ३ माणकोट्ठोवगए, सज्झायज्झाणरयस्स
-भगवती ४ कालं पुण पडुच्च चरणकरणट्ठा अवोच्छि त्ति निमित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भव।
-वशवकालिक चूर्णि, पृ० २१