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________________ ४२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा जाता था। वर्तमान में ईसा की पांचवीं शताब्दी में लिखे हुए पन्ने भी उपलब्ध होते हैं । इस विवेचन का सारांश यह है कि लेखन कला का प्रचार भारत में प्राचीनकाल से था किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आगम साहित्य को लिखने की परम्परा नहीं थी । आगमों को कण्ठाग्र किया जाता था। जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में यही सिलसिला था। एतदर्थं ही तीनों परम्पराओं में क्रमशः श्रुत, सुत्तं और श्रुति शब्द का प्रयोग आगम के लिए होता रहा है। वैदिक परम्परा में तो आचरण सम्बन्धी ग्रन्थों के लिए 'स्मृति' शब्द इस बात का स्पष्ट प्रतीक है कि वे कण्ठाग्र ही किए जाते थे अर्थात् लिपि का ज्ञान होते हुए भी प्रचीन भारत में लिखने की परम्परा नहीं थी । आगम लेखन युग जैन दृष्टि से चौदह पूर्वो का लेखन कभी हुआ ही नहीं। उनके लेखन के लिए कितनी स्याही अपेक्षित है इसकी कल्पना अवश्य ही की गई है। वीर निर्वाण संवत् ८२७ से ८४० में जो मथुरा और वल्लभी में सम्मेलन हुए, उस समय एकादश अंगों को व्यवस्थित किया गया। उस समय आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार सूत्र की रचना की। उसमें द्रव्यश्रुत के लिए पत्तय पोत्ययलिहिअं" शब्द का प्रयोग हुआ है। इसके पूर्व आगम लिखने का प्रमाण प्राप्त नहीं है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि श्रमण भगवान महावीर के परिनिर्वाण की स्वीं शताब्दी के अन्त में आगमों के लेखन की परम्परा चली, परन्तु आगमों को लिपिबद्ध करने का स्पष्ट संकेत देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के समय से मिलता है। आगमों को लिपिबद्ध कर लेने पर भी एक मान्यता यह रही कि श्रमण अपने हाथ से पुस्तक लिख नहीं सकते और न अपने साथ रख ही सकते हैं, क्योंकि ऐसा करने में निम्न दोष लगने की सम्भावना रहती है—(१) अक्षर आदि लिखने से कुन्थु आदि त्रस जीवों की हिंसा होती है एतदर्थ १ भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ० २ । २ वही, पृ० २ । ३ अनुयोगद्वार, श्रुत अधिकार ३७ ।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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