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जैन आगम साहित्य : एक अनुशीलन ४१
यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि प्राग्- ऐतिहासिक काल में लिखने की सामग्री किस प्रकार की थी। 'पुस्तकरत्न' का वर्णन करते हुए राजप्रश्नीय सूत्र में कम्बिका (कामी), मोरा, गांठ, लिप्यासन ( मषिपात्र ), छंदन ( ढक्कन ), सांकली, मषि और लेखनी-इन लेखन उपकरणों का वर्णन किया गया है। प्रज्ञापना में 'पोत्थार' शब्द आता है जिसका अर्थ है लिपिकार' । इसी आगम में पुस्तक लेखन को आर्यशिल्प कहा है और अर्धमागधी भाषा एवं ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करने वाले लेखक को भाषा आर्य में समाविष्ट किया है । स्थानांग में पाँच प्रकार की पुस्तकों का उल्लेख है - ( १ ) गण्डी, (२) कच्छवी, (२) मुष्टि, (४) संपुट फलक, (५) सुपाटिका । दशवेकालिक वृत्ति में प्राचीन आचार्यों के मन्तव्यों का उल्लेख करते हुए इन पुस्तकों का विवरण दिया गया है। निशीथ चूर्णि में इनका वर्णन है। टीकाकार ने पुस्तक का अर्थ ताडपत्र, संपुट का पत्र संचय और कर्म का अर्थ मषि एवं लेखनी किया है एवं पोत्थारा या पोत्थकार शब्द का अर्थ पुस्तक के द्वारा आजीविका चलाने वाला किया है।
आगम - साहित्य के अतिरिक्त बौद्ध और वैदिक वाङ्मय में भी लेखन कला का वर्णन उपलब्ध होता है । इतिहास इस बात का साक्षी है । सिकन्दर के सेनापति निआर्क्स ने अपनी भारत यात्रा के संस्मरणों में लिखा है कि 'भारतवासी लोग कागज बनाते थे'। ईसा की द्वितीय शताब्दी में लिखने के लिए ताडपत्र और चतुर्थ शताब्दी में भोजपत्र का उपयोग किया
१ प्रज्ञापनासूत्र पद १
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३ (क) स्थानांगसूत्र, स्थान ५ ।
(ख) बृहत्कल्पमाध्य ३, ३८२२ ।
(ग) विस्तृत विवेचन हेतु देखिए
जैनचित्रकल्पद्रुम - श्री पुण्यविजयजी महाराज द्वारा सम्पादित ।
(घ) आउटलाइन्स आफ पैलियोग्राफी, जर्नल आफ यूनिवर्सिटी आफ बोम्बे, जिल्द ६, मा० ६, पृ० ८७ एच० आर० कापडिया तथा ओझा, वही, पृ० ४-५६ ४ दशवैकालिक, हारिभद्रीयावृत्ति, पत्र २५
५ निशीथचूणि उ० १२ ।
६ राइस डैविड्स बुद्धिस्ट इण्डिया, पृ० १०८ ।
भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पू० २ ।
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