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________________ ६६० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट कषायसंल्लेखना---परिणामों की विशुद्धि का नाम कषायसंल्लेखना है जिसमें क्रोधादि कषायों को कृश किया जाता है। काम-राग-विषयों के साधनभूत अभीप्सित वस्तुओं में राग होना काम-राग है। काय-----जिसकी रचना एवं वृद्धि औदारिक, वैक्रिय आदि पुद्गलों के स्कन्ध से होती है अथवा जो नामकर्म के उदय से निष्पन्न होता है अथवा जाति नामकर्म के अविनाभावी बस और स्थावर नाम कर्म के उदय से होने वाली आत्मा की पर्याय विशेष । काय-क्लेश-कायोत्सर्ग, विविध प्रकार के आसन आदि से शरीर को कष्ट' पहुँचाना। काय-गुप्ति---शयन, आसन, आदान-निक्षेप, स्थान और गमन आदि क्रियाओं के करते समय शरीर की प्रवृत्ति को नियमित रखना, सावधानीपूर्वक उन कार्यों को करना, कायगुप्ति है। काय-योग----वीर्यान्तराय के क्षयोपशम के सद्भाव में औदारिक एवं औदारिकमिश्र आदि सात प्रकार की वर्गणाओं में से किसी एक का आलम्बन लेकर जो आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होता है, वह काय-योग है। काय-स्थिति-एक काय को अर्थात् औदारिक आदि शरीर को न छोड़कर उसके रहने तक विविध भवों को ग्रहण करते हुए जितना काल व्यतीत होता है, वह काय-स्थिति है। कायोत्सर्ग-शरीर के ममत्व का परित्याग कर आत्मस्थ होना अथवा जिनेश्वर देवों के गुणों का मन में उत्कीर्तन करना । कार्मण----जो सभी शरीरों की उत्पत्ति का बीजभूत शरीर है---उनका कारण है-वह कार्मण शरीर है। कार्मण काययोग-सब शरीरों के बीजभूत शरीर को कार्मण शरीर कहा है । मन, बचन एवं काय वर्गणाओं के निमित्तभूत आत्म-प्रदेश परिस्पन्द का नाम योग है । कार्मण शरीर के द्वारा जो योग किया जाता है वह कार्मण काययोग है। काल-जो पंच वर्ण, पंच रस, दो गंध व अष्ट स्पशों से रहित, छह प्रकार की हानि-वृद्धि स्वरूप, अगुरु-लघु गुण से संयुक्त होकर वर्तना--स्वयं परिणमते हुए द्रव्यों के परिणमन में सहकारिता--लक्षण वाला है, वह काल है। ... कालवाद--काल ही सबको उत्पन्न करता है, काल ही सबका विनाश करता है और प्रसुप्त प्राणियों के भीतर भी जाग्रत रहता है, उसके साथ कोई भी वंचना नहीं कर सकता, इस प्रकार काल को महत्त्व देना कालवाद है। काल-संस्थानमा काल का क्षेत्र मानव-लोक है। वही काल-संस्थान है, अर्थात आकार जानना चाहिए, क्योंकि सूर्य का संचार मानव-लोक के अतिरिक्त कहीं नहीं है, अतः उसे उपचार से काल-संस्थान कहा है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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