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जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा परिशिष्ट
उपपात - जिस जन्म का कारण उपपात क्षेत्र मात्र होता है उसे उपपात जन्म कहते हैं । यह जन्म वस्त्र विशेष के ऊपर और देवदृष्य के नीचे वैक्रियिक शरीर के योग्य द्रव्य के ग्रहण से होता है।
उपयोग-बाह्य और अभ्यन्तर कारण के वश जो चेतनता का अनुसरण करने वाला परिणाम उत्पन्न होता है, वह उपयोग है ।
उपशम- आत्मा में कारणवश कर्म के फल देने की शक्ति के प्रगट न होने को उपशम कहते हैं ।
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उपशमसम्यक्त्व-दर्शनमोहनीय के उपशम से उत्पन्न होने वाले सम्यक्त्व को उपशम सम्यक्त्व कहते हैं।
उपशान्तकषाय सम्पूर्ण मोहकर्म का उपशम करने वाले ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव को उपशान्तकषाय कहते हैं ।
उपासकदशा-जिस अंग में श्रमणोपासकों के अणुव्रत, गुणव्रत, पौषध, उपवास आदि की विधि, प्रतिमा की चर्चा हो ।
उपोद्घात -- जिसका प्रयोजन उपक्रम से उद्दिष्ट वस्तु का प्रबोध कराना होता है, वह उपोद्घात है ।
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ऊर्ध्वलोक— मध्य लोक के ऊपर जो खड़े किये हुए मृदंग के समान लोक है वह ऊर्ध्वलोक है।
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ऋजुता कपट से रहित मन, वचन, काय की सरल प्रवृत्ति ऋजुता कहलाती है ।
ऋजुमति पर के मन में स्थित मन, वचन, काय से किये गये अर्थ के ज्ञान से निर्वार्तित सरल बुद्धि ऋजुमति मनः पर्यवज्ञान है ।
ऋजुसूत्र तीनों कालों के पूर्वापर विषयों को छोड़कर जो केवल वर्तमान कालभावी विषय को ग्रहण करता है, वह ऋजुसूत्रनय है।
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एकासन -- जिस नियम विशेष में एक आसन में स्थिर होकर जो भोजन किया जाता है, वह एकासन है; अथवा दिन में एक बार आहार ग्रहण करना एकासन कहलाता है ।
एकेन्द्रिय-वे जीव जिनके एकेन्द्रिय जाति नामकर्म का उदय होता है और जिनमें एक स्पर्शन इन्द्रिय ही पाई जाती है ।
एवम्भूतनय-जो द्रव्य जिस प्रकार की क्रिया से परिणत हो उसका उसी प्रकार से निश्चय कराने वाले नय को एवम्भूतनय कहते हैं।
एषणा समिति-कृत, कारित एवं अनुमोदना दोषों से रहित दूसरों के द्वारा दिये गये प्रासुक व प्रशस्त भोजन को ग्रहण करना एषणा समिति है ।