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पारिभाषिक शब्द कोश
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.. आत्मांगुल----भरत-ऐरवत क्षेत्रों में समुत्पन्न विभिन्न कालवर्ती मानवों के अंगुल को, उस-उस समय के अंगुल प्रमाण को आत्मांगुल कहा जाता है। यह प्रत्येक व्यक्ति का अपना अंगुल होता है। . . .... आयम्बिल-जिसमें विगय, घृत, दूध, दही, तेल और मिष्ठान्न, त्यागकर केवल दिन में एक बार अन्न खाया जाय और गरम पानी पीया जाय वह आयम्बिल है। .
. आभिग्रहिक-यही दर्शन ठीक है, अन्य कोई भी दर्शन ठीक नहीं है। इस प्रकार के कदाग्रह से निर्मित मिथ्यात्व का नाम आभिग्राहक है। ...... ...- आभिनिवेशिक मिथ्यात्व-अपने पक्ष को असत्य जानकर भी उसकी स्थापना करने के लिए दुनिविशिक (दुराग्रह करना) करना।
मायुकर्म-नरक आदि गति को प्राप्त कराने वाले कर्म को आयु कर्म कहते हैं।
आरम्भ----जीवों को कष्ट पहुँचाने वाली जो प्रवृत्ति है, वह आरम्भ है।
आरम्भिकी क्रिया-पृथ्वीकाय आदि जीवों के संहार रूप आरम्भ ही जिस क्रिया का रूप हो, वह आरम्भिकी क्रिया है।
आराधक- जो पाँच इन्द्रियों को अपने अधीन रखता है। मन, वचन, काय की प्रवृत्ति में पूर्ण सावधान है। तप, नियम व संयम में जो सतत संलग्न है, वह आराधक कहलाता है। . आराम-विविध जाति के पुष्पों से सुशोभित उपवन को आराम कहते हैं। .... आर्जव धर्म-माया का परित्याग कर निर्मल अन्तःकरण से प्रवृत्ति करना आर्जव धर्म है।... .
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... ..आतं-ध्यान-----अनिष्ट का संयोग होने पर उसे दूर करने के लिए; इष्ट का वियोग होने पर उसकी प्राप्ति के लिए; पीड़ा के होने पर उसके परिहार के लिए एवं आगामी काल में सुख की प्राप्ति के लिए पुनः पुनः चिन्तवन करना; आर्तध्यान कहा जाता है।
... आलम्बन----सम्पूर्ण लोक ध्यान के आलम्बनों से भरा है। ध्याता श्रमण जिस किसी भी वस्तु को आधार बनाकर मन से चिन्तन करता है, वही वस्तु उसके लिए ध्यान का आलम्बन बन जाती है। ... आलोचना-गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट कर देना।
आवश्यक-जो अवश्य ही करने योग्य है, वह आवश्यक है।।
आवीचिमरण-'वीचि' नाम तरंग का है। तरंग के समान जो निरन्तर आयुकर्म के निषेकों का प्रतिक्षण क्रम से उदय होता है उसके अनुभवन को आवीचिमरण कहते हैं।
आसेवनाकुशील-संयम की विपरीत आराधना या असंयम का सेवन करने वाले श्रमण को आसेवनाकुशील कहते हैं।