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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट
चरण आदि रूप औपक्रमिक क्रियाविशेष के सामर्थ्य से बलपूर्वक उदयावली में प्रवेश . कराके आम्र आदि फलों के पाक के सदृश वेदन करना अविपाक निर्जरा है।
अविरति----हिंसादि पापों से निवृत्त होने का नाम विरति है, और इस प्रकार की विरति का अभाव अविरति है।
अध्यावाध सुख--जो अनुपम, अपरिमित, अविनश्वर, कर्ममल से रहित जन्म, जरा, रोग, भय आदि की बाधा से रहित सुख है वह अब्यावाध है।
अश्रुतनिधित-बिना शास्त्राभ्यास के स्वाभाविक विशिष्ट क्षयोपशम के वश जो औत्पत्तिकी, वैनयिकी आदि चार बुद्धि से विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अश्रुतनिश्रित आभिनिबोधिक मतिज्ञान है।
असत्-उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य स्वरूप से विपरीत सत् असत् है।
असंशी-जो जीव मन के अभाव के कारण शिक्षा, उपदेश और आलाप आदि ग्रहण न कर सके, वह असंज्ञी है। ...
असंयम-षट्काय के जीवों का घात करने एवं इन्द्रिय व मन को नियन्त्रित न रखने का नाम असंयम है।
असातावेवनीय-जिस कर्म का वेदन-अनुभवन परिताप के साथ किया जाता है, वह असातावेदनीय है।
असुर-जिनका स्वभाव हिंसादि प्रधान होता है। अस्तिकाय-- अनेक प्रदेशी द्रव्यों को अस्तिकाय कहते हैं।
'आकाश---जो धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और सभी जीवों को स्थान देता है, वह आकाश है।
आगम-पूर्वापरविरोधादि दोषों से रहित, शुद्ध, आप्त के वचन को आगम कहते हैं।
आचार--जिसमें श्रमणों के आचार, भिक्षा विधि, विनय, विनय फल, शिक्षा, भाषा, अभाषा, चरण, करण, संयमयात्रा आदि का कथन किया गया है, उसका नाम आचार है।
'आज्ञाव्यवहार--देशान्तर-स्थित गुरु को अपने दोषों की आलोचना कर लेने के लिए किसी अगीतार्थ के द्वारा आगम भाषा में पत्र लिखकर भेजने एवं गुरु के द्वारा भी उसी प्रकार गुढ पदों में ही निश्चित अर्थ के मेजने को आज्ञाव्यवहार कहा जाता है।
आतप--सूर्य आदि के निमित्त से जो उष्ण प्रकाश होता है, वह आतप है। 'आत्म-तत्त्व-मन की विक्षेप-रहित अवस्था का नाम आत्म-तत्त्व है।
आत्म-प्रवाय----आत्मा के अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, कतत्वभोक्तत्व आदि धर्म एवं षट्जीवनिकायों के प्रतिपादन करने वाले पूर्व का नाम आत्मप्रवाद है।