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पारिभाषिक शब्द कोश ६८३ अप्रशस्त विहायोगति-जिस कर्म के उदय से ऊँट, गर्दभ, शृगाल आदि के सदृश, निन्द्य विचार पैदा हों वह अप्रशस्त विहायोगति है।
- अबाधाकाल--बँधने के पश्चात् भी कर्म जितने समय तक बाधा नहीं पहुँचाता--उदय में नहीं आता है-उतना समय उसका अबाधाकाल कहलाता है।।
अभयदान-मरण आदि के भय से ग्रस्त जीवों की रक्षा करना।
अभव्य---जो सम्यग्दर्शन आदि पर्याय को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में जिसमें मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता नहीं है।
अभिग्रहीत--दूसरे के उपदेश से ग्रहण किये गये मिथ्यात्व को अभिगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं।
अमनस्क--द्रव्य-भाव स्वरूप मन से रहित जीवों को अमनस्क कहते हैं। अमूर्तत्व-मूर्तता के अभाव रूप गुण का नाम अमूर्तत्व है।
अयोगिकेवली--जो शुक्ल-ध्यान रूप अग्नि से घातिया कमों को नष्ट करके योग से रहित हो जाते हैं, वे अयोगकेवली या अयोगिकेवली हैं।
अरतिरति---अरति मोहनीय के उदय से होने वाली चित्त के उद्वेग रूप रति के फलस्वरूप जो विषयों में मन का अनुराग होता है, वह अरतिरति है।
अरूपी--जो शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श से रहित हैं, वे अरूपी हैं।
अर्थावग्रह-व्यंजनावग्रह के अन्तिम समय में गृहीत शब्दादि अर्थ के अवग्रहण का नाम अर्थावग्रह है।
अर्धमागधी भाषा--जो भाषा आधे मगध में बोली जाती थी अथवा जो अठारह देशी भाषाओं में नियत थी, उसका नाम अर्धमागधी है।
अलोक-लोक के बाहर जितना भी अनन्त आकाश है, वह सब अलोकाकाश अथवा अलोक कहलाता है।
अवग्रह-पदार्थ और उसे विषय करने वाली इन्द्रियों का योग्य देश में संयोग होने के अनन्तर उसका जो सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन होता है, उसके अनन्तर वस्तु का जो प्रथम बोध होता है, वह अवग्रह है।
अवसन्त्र-सामाचारी के विषय में प्रमादयुक्त श्रमण अवसन्न कहलाता है।
अवसर्पिणी-जिस काल में जीवों के अनुभव, आयु, प्रमाण और शरीरादि क्रम से घटते जाते हैं, वह अवसर्पिणी काल है।
अवाय-भाषादि विशेष के ज्ञान से यथार्थ रूप में जानना, अवाय है। जैसेयह दक्षिण दिशा ही है। यह युवक है।
अविग्रह गति-विग्रह का अर्थ रुकावट या वक्रता है। जिससे जीव की गति वक्र या मोड़ रहित होती है वह अविग्रह गति है । एक समय वाली गति अविग्रह गति है।
अविपाक निर्जरा-जिस कर्म का उदय संप्रति प्राप्त नहीं हुआ है उसे तप