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________________ ६८२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट - अन्वयव्यतिरेकी---जो हेतु पक्षधर्मत्व, सपक्ष सत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबाधितअविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व; इन पांचों से युक्त है वह अन्वयव्यतिरेकी है। . अपकर्षण-कर्म प्रदेशों की स्थितियों के होन करने का नाम अपकर्षण है। अपध्यान—राग-द्वेष के वशीभूत होकर दूसरों के वध, बन्धन, छेदन एवं पापकारी विचार करना अपध्यान है। - अपरविबेह-मेरु पर्वत से पश्चिम की ओर जो विदेह क्षेत्र का आधा भाग अवस्थित है, वह अपर विदेह है। ... अपरिगृहीता----जो पतिविहीन स्त्री गणिका या पुष्पचूलि रूप से परपुरुषों के सम्पर्क में आती हो, वह अपरिगृहीता कही जाती है। ____ अपरिग्रह-मोह के उदय से 'यह मेरा है', इस प्रकार की ममत्व बुद्धि परिग्रह है, और परिग्रह से निवर्त हो जाना अपरिग्रह है। अपर्याप्ति----अपर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त जो जीव है, वह अपर्याप्त है और पर्याप्तियों की अपूर्णता या उनकी अर्धपूर्णता का नाम अपर्याप्ति है। अपवर्ग---जहाँ जन्म, जरा, मरण आदि दोषों का अत्यन्त विनाश हो जाता है, ऐसे मोक्ष का नाम अपवर्ग है। अपवर्तना--बद्ध कर्मों की स्थिति तथा अनुभाग में अध्यवसाय क्षेत्र से कमी कर देना। . अपवर्तमाकरण--जिस वीर्य विशेष से पहले बँधे हए कर्म की स्थिति तथा रस घट जाते हैं, वह अपवर्तनाकरण है। अपवर्तनीय आयु-बाह्य निमित्त से जो आयु कम हो जाती है वह अपवर्तनीय है। इस आयुच्छेद को अकाल मरण भी कहा जाता है। अपूर्वकरण-वह परिणाम जिसके द्वारा जीव राग-द्वेष की दुर्भेद्य ग्रन्थि को तोड़कर लाँघ जाता है। अपूर्वकरण गुणस्थान--जिस गुणस्थान में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम कदाचित् सदृश और कदाचित् विसदृश होते हैं, उसे भिन्न समयवर्ती जीवों के द्वारा अप्राप्त पूर्व परिणामों के प्राप्त करने से अपूर्वकरण गुणस्थान कहा है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जिस गुणस्थान में स्थितिघात, रसधात, गुणणि और स्थितिबन्ध आदि के निवर्तक अपूर्व कार्य होते हैं, वह अपूर्वकरण गुणस्थान है। अपकायिक जीव-जल ही जिनका शरीर हो वह अपकायिक जीव कहलाते हैं। अप्रतिपाति अवधिज्ञान---जो अवधिज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति तक स्थित रहता है और जो अलोक के एक प्रदेश को भी देखता है, वह अप्रतिपति अवधिज्ञान है। अप्रत्याख्यान---जिस कर्म के उदय से अल्प प्रत्याख्यान भी न हो सके। - अप्रमत्तसंयत--सर्व प्रकार के प्रमादों से रहित, और व्रत, गुण, शील से युक्त, सध्यान में लीन, ऐसे श्रमण अप्रमत्तसंयत हैं।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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