SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 710
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पारिभाषिक शब्द कोश शुद्ध चैतन्यमय आत्मा में जिन्हें आत्मबुद्धि प्रादुर्भूत हुई है, वे अन्तरात्मा कहलाते हैं। ये चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बाहर गुणस्थान तक के जीब होते हैं। अन्तराय कर्म-जो कर्म दाता और देय आदि के बीच में आता है-दान आदि देने में रुकावट डालता है-वह अन्तराय कर्म है। अन्तरिक्ष-महानिमित्त-आकाश में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण के उदय-अस्त आदि अवस्था विशेष को निहारकर भूत-भविष्यत्-काल सम्बन्धी फल के विभाग को दिखलाना, वह अन्तरिक्ष-महानिमित्त कहा जाता है। - अन्तमुहूर्त-एक समय अधिक आवली से लगाकर एक समय कम मुहूर्त तक के काल को अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। अन्तःकरण-गुण-दोष के विचार एवं स्मरण आदि व्यापारों में जो बाह्य इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रखता है, जो चक्षु आदि इन्द्रियों के समान बाह्य में दृष्टिगोचर भी नहीं होता है, ऐसे अभ्यन्तर करण (मन) को अन्तःकरण कहते हैं। अन्तःशल्य---जिसके अन्तःकरण में अपराध रूपी काटा चुभ रहा है, किन्तु लज्जा व अभिमान आदि के कारण जो दोष की आलोचना नहीं करता है, वह साधु अन्तःशल्य है। अन्त्यसूक्म-परमाणुगत सूक्ष्मता अन्त्य सूक्ष्म है। अन्स्यस्थूल.....जगद्व्यापी महास्कन्ध-गत स्थूलता अन्त्यस्थूल है। 'अन्न-पान निरोध-मानव व पशु आदि प्राणियों को भोजन के समय पर उन्हें भोजन-पान न देना, अन्नपान निरोध नामक अतिचार है। अन्यत्व भावना-जीव के शरीर से पृथक होने पर उस शरीर से सम्बद्ध पुत्रमित्र-कलत्र आदि उससे सर्वथा भिन्न रहने वाले हैं, जीव का उनके साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है, इस प्रकार की भावना अन्यत्व भावना है। .. अन्यथानुपपत्ति-साध्य के अभाव में हेतु के घटित न होने को अन्यथानुपपत्ति कहा है। अन्ययोगव्यवच्छेद-विशेष्य के साथ प्रयुक्त एवकार अन्ययोग व्यवच्छेद है। जैसे-पार्थ (अर्जुन) ही धनुर्धर है। - अन्यलिङ्गसिद्ध-परिव्राजक आदि अन्य लिंगों से सिद्ध होने वाले जीवों को अन्यलिंगसिद्ध कहा जाता है। अन्योन्यभाव-गाय आदि किसी एक वस्तु में अन्य अश्व आदि का अभाव अन्योन्य-भाव है। .: अन्वय-अवस्था, देश और काल के भेद होते हुए भी जो कथंचित् तादात्म्य की अवस्था देखी जाती है, वह व्यवहार के लिए अन्वय माना जाता है। अन्वय दृष्टान्त--जिस स्थान पर साध्य से व्याप्त साधन दिखाया जाए वह अन्वय दृष्टान्त है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy