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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट
अनिवृतिकरण गुणस्थान- जिस गुणस्थान में विवक्षित एक समय के अन्दर वर्तमान सर्व जीवों के परिणाम परस्पर में भिन्न न होकर समान हों, वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है ।
अनुकम्पा - तृषित, बुभुक्षित प्राणी को देखकर उसके दुःख से स्वयं दुःखी होना और मन में उसके उद्धार का चिन्तन करना, अनुकम्पा है ।.
अनुप्रक्षा - शरीर आदि के स्वभाव का चिन्तन करना अथवा पठित अर्थ का मन से अभ्यास करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है ।
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अनुभाग- कषायजनित परिणामों के अनुसार कर्मों में जो शुभ-अशुभ रस प्रादुर्भूत होता है, वह अनुभाग है।
अनुभागबन्ध जैसे मोदक में स्निग्ध व मधुर आदि रस एक गुणे, दुगुणे आदि रूप से रहता है उसी प्रकार कर्म में भी जो देशघाती व सर्वघाती, शुभ या अशुभ, तीव्र या मन्द आदि रस होता है वह अनुभागबन्ध है ।
अनुमान - साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले साधन से साध्य का ज्ञान अनुमान है।
अनुयोग—अर्थ के साथ सूत्र की जो अनुकूल योजना की जाती है, उसका नाम अनुयोग है; अथवा सूत्र का अपने अभिधेय में जो योग होता है, वह अनुयोग है। अनुश्रेणि लोक के मध्य भाग से लेकर ऊपर, नीचे और तिरछे रूप में जो आकाश प्रदेशों की पंक्ति अनुक्रम से अवस्थित है, वह अनुश्रेणि है ।
अनुसारी — गुरु के उपदेश से किसी भी ग्रन्थ के आदि, मध्य या अन्त के एक बीजपद को सुनकर उसके उपरिवर्ती समस्त ग्रन्थ को जान लेना अनुसारी कहलाता है ।
अनेकान्त - एक वस्तु में मुख्यता और गौणता की अपेक्षा अस्तित्व - नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्मो का प्रतिपादन अनेकान्त है ।
अन्तकृत् जो अष्ट कर्मों को नष्ट कर, सिद्ध पद प्राप्त करते हैं, वे अन्तकृत् कहलाते हैं ।
अन्तकृद्दशाङ्ग —— प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में होने वाले दस-दस अन्तकृत् केवलियों का वर्णन जिसमें किया गया है, वह अन्तकृद्दशांग है ।
अन्तरकरण -- विवक्षित कर्मों की अघस्तन और उपरिम स्थितियों को छोड़कर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितियों के निषेकों के परिणामविशेष का अभाव करना अन्तरकरण है ।
अन्तरङ्ग क्रिया स्वसमय और परसमय के जानने रूप ज्ञान क्रिया को अन्तरंग क्रिया कहते हैं ।
अन्तरात्मा जो आठ मदों से रहित होकर देह और जीव के भेद को जानते हैं, वे अन्तरात्मा हैं। अथवा सकम अवस्था में भी ज्ञानादि उपयोगस्वरूप