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________________ पारिभाषिक शब्द कोश ६७६ ...., अधर्म-द्रव्य--जो स्वयं ठहरते हुए जीव और पुद्गल द्रव्यों के ठहरने में सहायक होता है। अधःप्रवृत्तकरण-अधःप्रवृत्तकरण परिणाम वे हैं जो अधस्तन समयवर्ती परिणाम उपरितन समयवर्ती परिणामों के साथ कदाचित् समानता रखते हैं। उसका दूसरा नाम यथाप्रवृत्तकरण भी है। ये परिणाम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में पाये जाते हैं। ___ अधःप्रवृत्तकरण विशुद्धि-प्रथम समय के योग्य अधःप्रवृत्त-परिणामों की अपेक्षा द्वितीय समय के योग्य परिणाम अनन्त गुणे विशुद्ध होते हैं। इनकी अपेक्षा तृतीय समय के योग्य परिणाम अनंत गुणे विशुद्ध होते हैं । इस तरह अन्तर्मुहुर्त के समयों के प्रमाण उन परिणामों में समयोत्तर क्रम से अनन्त-गुणी विशुद्धि समझना चाहिए। ... अधिगम-जिसके द्वारा पदार्थ जाने जाते हैं, ऐसे ज्ञान को अधिगम कहते हैं। . अधिगम सम्यग्दर्शन-परोपदेश से, जीवादि तत्त्वों के निश्चय से, जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, वह अधिगम सम्यग्दर्शन है। अध्ययन-जो शुभ अध्यात्म (चित्त) को उत्पन्न करता है, वह अध्ययन है। अथवा जो निर्मल चित्त-वृत्ति को लाता है, उसका नाम अध्ययन है। अथवा जिसके द्वारा बोध, संयम और मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह अध्ययन है। " अनन्त-----आय-रहित और निरन्तर व्यय-सहित होने पर भी जो राशि कभी समाप्त न हो अथवा जो राशि एकमात्र केवलज्ञान की ही विषय हो, वह अनन्त कहलाती है। - अनन्तकाय--जिन अनन्त जीवों का एक साधारण शरीर हो और जो अपने मूल शरीर से छिन्न-भिन्न होकर पुनः उग जाते हैं। .. अनन्तवीर्य----वीर्यान्तराय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर जो अप्रतिहत सामर्थ्य उत्पन्न होता है, वह अनन्तवीर्य है। .... अनन्तानुबन्धी----जिसके उदय होने पर सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं होता है, और यदि उत्पन्न हो चुका है तो नष्ट हो जाता है। दूसरे शब्दों में अनन्त भवों की परम्परा को चालू रखने वाली कषायों को अनन्तानुबन्धी कहा है। अनर्थक्रिया-बिना प्रयोजन की जाने वाली क्रिया।। अनर्थदण्डविरति-जिन कार्यों के करने से अपना कुछ भी प्रयोजन सिद्ध न हो, केवल पाप का ही संचय हो ऐसे पापोपदेश को छोड़ना या त्याग करना अनर्थदण्डविरति कहलाता है। र अनाचार-विषयों में आसक्ति को अनाचार कहा जाता है। अनाभिग्राहिक मिथ्यात्व--सभी दर्शन श्रेष्ठ हैं, इस प्रकार की बुद्धि से ही सबको समान मानना अनाभित्राहिक मिथ्यात्व है। १०१ . अनार्य---जिनका आचरण विपरीत है, निन्ध है, वे अनार्य हैं।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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