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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा : परिशिष्ट
नामक स्वभाव है, उसके प्रतिसमय जो छहस्थान पतित वृद्धि-हानि रूप, अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद हैं, उसका नाम अगुरु-लघु गुण है ।
अधाति कर्म---जीव के प्रतिजीवी गुणों के घात करने वाले कर्म, उनके कारण आत्मा को शरीर के कैद में रहना पड़ता है। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म अधाति कर्म हैं।
___ अङ्ग-प्रविष्ट-जिन शास्त्रों की रचना अर्थ की दृष्टि से तीर्थकर और सूत्र की दृष्टि से गणधर करते हैं। जैसे आचारांग आदि ।
अङ्गबाह्य-गणधरों के शिष्य-प्रशिष्यादि आचार्यों द्वारा अल्पबुद्धि शिष्यों के अनुग्रहार्थ की गई संक्षिप्त रचनाएँ । जैसे--औपपातिक, राजप्रश्नीय आदि ।
. अचक्ष दर्शन--चक्षु इन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों और मन के द्वारा होने वाले अपने-अपने सामान्य धर्मों का आभास ।
अचक्ष दर्शनावरण-अचक्षुदर्शन को आवरण करने वाला कर्म । अचेलक-अल्प वस्त्रधारी या जिसके किसी प्रकार का वस्त्र नहीं है ।
अचौर्य महाव्रत-किसी भी स्थान पर रखे हुए, भूले हुए, या गिरे हुए द्रव्य को ग्रहण करने की इच्छा न करना।
अजीव-जिसमें चेतना न पाई जाय ।
अजीव क्रिया---अचेतन पुद्गलों के कर्म रूप में परिणत होने को अजीव क्रिया कहते हैं। . अज्ञान-मिथ्यात्व के उदय के साथ विद्यमान ज्ञान ही अज्ञान है।
___ अणु-जो प्रदेश मात्र में होने वाली स्पर्शादि पर्यायों के उत्पन्न करने में समर्थ है, ऐसे पुद्गल के अविभागी अंश को अणु कहा जाता है।
अणुन्नत-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन स्थूल पापों के परित्याग को अणुव्रत कहा गया है।
'अतिचार-चारित्र सम्बन्धी स्खलनाओं का नाम अथवा व्रत का एकदेश से भंग होना, अतिचार है।
अतीन्द्रिय सुख-इन्द्रिय व मन की अपेक्षा न रखकर आत्म मात्र की अपेक्षा से जो निर्बाध सुख प्राप्त होता है, वह अतीन्द्रिय सुख है।
अवाकाल-.--चन्द्र, सूर्य आदि की क्रिया से परिलक्षित होकर जो समयादिरूप काल अढाई द्वीप में प्रवर्तमान है वह अद्धाकाल कहलाता है।
अखापल्य--- उद्धार पल्य के प्रत्येक रोम खण्ड के सौ वर्षों के समयों से गुणित करके उनसे परिपूर्ण गड्ढे को अद्धापल्य कहा है।
अद्यापल्योपम---अद्धापल्य में से प्रति समय, रोम खण्डों में से निकालतेनिकालते जितने काल में वह पल्य खाली हो वह अद्धापल्योपम है।
अद्धा समय--काल के अविभागी अंश को अद्धा समय कहते हैं।