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६७२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (३३८) आगमहीणो समणो, वप्पाणं परं वियाणादि । ३।३२
शास्त्रज्ञान से शून्य श्रमण न अपने को जान पाता है, न पर को। (३३६) आगम चक्खू साहू, इंदिय चक्खूणि सव्वभूदाणि । ३३४ .
अन्य सब प्राणी इन्द्रियों की आँख वाले हैं, किन्तु साधक आगम की आँख
वाला है। (३४०) जे अण्णाणी कम्म खवेदि, भवसयसहस्स-कोडीहिं।
तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेदि उस्सासमेत्तेणं ॥ ३॥३८ अज्ञानी साधक बाल तप के द्वारा लाखों-करोड़ों जन्मों में जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म, मन, वचन, काया को संयत रखने वाला ज्ञानी साधक
एक श्वास मात्र में खपा देता है। नियमसार (३४१) जो झायइ अप्पाणं, परमसमाही हवे तस्स । १२३
जो अपनी आत्मा का ध्यान करता है, उसे परम समाधि की प्राप्ति
होती है। पंचास्सिकाय (३४२) दव्वं सल्लक्षणयं, उप्पादन्वयधुवत्तसंजुत्तं । १०
द्रव्य का लक्षण सत् है और वह सदा उत्पाद, व्यय एवं ध्र वत्व भाव से
युक्त होता है। (३४३) दम्वेण विणा न गुणा, गुणेहि दव्वं विणा नं संभवदि । १५
द्रव्य के बिना गुण नहीं होते हैं और गुण के बिना द्रव्य नहीं होते। (३४४) भावस्स णत्थि णासो, णस्थि अभावस्स चेव उप्पादो। १५
भाव (सत्) का कभी नाश नहीं होता और अभाव (असत्) का कभी
उत्पाद (जन्म) नहीं होता। (३४५) चारित्तं समभावो। १०७
समभाव ही चारित्र है। (३४६) सुहपरिणामो पुण्णं, असुहो पावं ति हवदि जीवस्स। १३२
मात्मा का शुभ परिणाम (भाव) पुण्य है और अशुम परिणाम पाप है। दर्शनपाहुड (३४७) दंसणमूलो धम्मो।२
धर्म का मूल दर्शन (सम्यक् श्रद्धा) है।