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आगम साहित्य के सुभाषित ६७१ (३२९) पक्के फलम्हि पडिए, जह ण फल बज्झए पुणो विटे।
जीवस्स कम्मभावे, पडिए ण पुणोदयमुवेइ ॥ १६८ जिस प्रकार पका हुआ फल गिर जाने के बाद पुनः वृत्त से नहीं लग सकता, उसी प्रकार कर्म भी आत्मा से वियुक्त होने के बाद पुनः वीतराग
आत्मा को नहीं लम सकते । (३३०) जह कणयमग्गितवियं पि, कणयभावं ण तं परिच्चयदि।
तह कम्मोदयतविदो, ण जहदि णाणी दुणाणित्तं ॥ १८४ जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि से तप्त होने पर भी अपने स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता, वैसे ही ज्ञानी भी कर्मोदय के कारण उत्तप्त होने पर भी अपने
स्वरूप को नहीं छोड़ते। (३३१) जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं । १९३
सम्यग्दृष्टि आल्मा जो कुछ भी करता है, वह उसके कमों की निर्जरा के
लिए ही होता है। (३३२) ण य वत्थूदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोत्थि । २६५
कर्मबन्ध वस्तु से नहीं, राग और द्वेष के अध्यवसाय----संकल्प से होता है। (३३३) आदा खु मज्झ णाणं, आदा मे दंसणं चरित्तं च । २७७
मेरा अपना आत्मा ही शान (ज्ञानरूप) है, दर्शन है और चारित्र है। (३३४) कह सो घिप्पइ अप्पा ? पण्णाए सो उ धिप्पए अप्पा । २९६
यह बात्मा किस प्रकार जाना जा सकता है ?
आत्मप्रज्ञा अर्थात् भेदविज्ञान रूप बुद्धि से ही जाना जा सकता है। (३३५) जो ण कुणइ अवराहे, सो णिस्संको दु जणवए भमदि । ३०२
जो किसी प्रकार का अपराध नहीं करता, वह निर्भय होकर जनपद में भ्रमण कर सकता है। इसी प्रकार निरपराध-निर्दोष आत्मा (पाप नहीं करने वाला) मी सर्वत्र निर्भय होकर विचरता है।
प्रवचनसार (३३६) चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो।
मोहक्खोह विहीणो, परिणामो अपणो ह समो॥ १७ चारित्र ही वास्तव में धर्म है, और जो धर्म है, वह समत्व है। मोह और
क्षोम से रहित आत्मा का अपना शुद्ध परिणमन ही समत्व है। (३३७) कीरदि अज्झवसाणं, अहं ममेदं ति मोहादो। २०६१
मोह के कारण ही मैं और मेरे का विकल्प होता है।