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________________ ६७० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (३१६) तपस्स मूलं धिती। ५४ तप का मूल धृति अर्थात् धैर्य है । (३२०) णिठुरं णिण्हेहवयणं खिसा । मउय सिणेहवयणं उवालंभो ।। २६३७ स्नेहरहित निष्ठुर वचन खिसा (फटकार) है, स्नेहसिक्त मधुर वचन उपालम (उलाहना) है। (३२१) गुणकारित्तणातो ओम भोत्तव्वं । २९५१ कम खाना मुणकारी है। (३२२) आवत्तीए जहा अप्पं रक्खंति । तहा अण्णोवि आवत्तीए रक्खियब्वो ॥ ५९४२ आपत्तिकाल में जैसे अपनी रक्षा की जाती है, उसी प्रकार दूसरों की भी रक्षा करनी चाहिए। (३२३) पमायमूलो बंधो भवति । ६६८६ कर्मबन्ध का मूल प्रमाद है। ति दिगम्बर आगम ग्रन्थ समयसार (३२४) ववहारणयो भासदि, जीवो देहो य हवदि खलु इक्को। ण दुणिच्छयस्स जीवो, देहो य कदापि एकट्ठो ।। २७ व्यवहारनय से जीव (आत्मा) और देह एक प्रतीत होते हैं, किन्तु निश्चय दृष्टि से दोनों भिन्न हैं, कदापि एक नहीं हैं। (३२५) णयरम्म वपिणदे जह ण वि, रणो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते, ण केवलिगुणा थुदा होति ।। ३० जिस प्रकार नगर का वर्णन करने से राजा का वर्णन नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के गुणों का वर्णन करने से शद्धारमस्वरूप केवलज्ञानी के गुणों का वर्णन नहीं हो सकता। (३२६) उवओग एव अहमिक्को । ३७ मैं (आत्मा) एक मात्र उपयोगमय-- ज्ञानमय हूँ। (३२७) अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि । ६२ अज्ञानी आत्मा ही कर्मों का कर्ता होता है। (३२८) रत्तो बंधदि कम्म, मुचदि जीवो विरागसंपत्तो। १५० जीव, रागयुक्त होकर कर्म बांधता है और विरक्त होकर कर्मों से मुक्त होता है। म (
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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