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आगम साहित्य के सुभाषित ६६६ दशवकालिकचूणि (३०७) साहुणा सागरो इव गंभीरेण होयव्वं । १
साधु को सागर के समान गंभीर होना चाहिए। (३०८) मइलो पडो रंगिओन सुन्दरं भवइ।४
मलिन वस्त्र रंगने पर भी सुन्दर नहीं होता। (३०९) कोवाकूलचित्तो जं संतमवि भासति, तं मोसमेव भवति । ७
क्रोध से क्षुब्ध हुए व्यक्ति का सत्य भाषण भी असत्य ही है। उत्तराध्ययनचूणि (३१०) न धर्मकथामन्तरेण दर्शनप्राप्तिरस्ति । १
धर्मकथा के बिना दर्शन (सम्यक्त्व) की उपलब्धि नहीं होती। (३११) सव्वणाणुत्तरं सुयणाणं । १ ।
साधना की दृष्टि से श्रुतज्ञान सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है। (३१२) परिणिब्बुतो णाम रागद्दोसविमुक्के । १०
राम और द्वेष से मुक्त होना ही परिनिर्वाण है। नंदीसूत्रचूणि (३१३) विसुद्धभावत्तणतो य सुगंधं । २०१३
विशुद्ध भाव अर्थात् पवित्र विचार ही जीवन की सुगन्ध है। (३१४) विविहकुलुप्पण्णा साहवो कप्परक्खा । २०१६
विविध कुल एवं जातियों में उत्पन्न हुए साधु पुरुष पृथ्वी के कल्पवृक्ष हैं। (३१५) भूतहितं ति अहिंसा । ५।३८
प्राणियों का हित अहिंसा है। (३१६) स्व-पर प्रत्यायकं सुतनाणं । ४४
स्व और पर का बोध कराने वाला शान-श्रुतज्ञान है। दशाश्रुतस्कंधणि (३१७) संघयणाभावा उच्छाहो न भवति । ३
___ संहनन (शारीरिक शक्ति) क्षीण होने पर धर्म करने का उत्साह नहीं होता। निशोषणि (३१८) विणओववेयस्स इह परलोगे वि विज्जाओ फलं पयच्छति । १३
शास्त्र का अध्ययन उचित समय पर किया हुआ ही निर्जरा का हेतु है, अन्यथा वह हानिकर तथा कर्मबन्ध का कारण बन जाता है।