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________________ ६६८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा विशेषावश्यकभाष्य (२९५) नाण-किरियाहिं मोक्खो। गा०३ ज्ञान एवं क्रिया (आचार) से ही मुक्ति होती है। (२९६) दब्वसुयं जो अणवउत्तो। १२६ जो श्रुत उपयोगशून्य है, वह सब द्रव्यश्रुत है। (२९७) सामाइओवउत्तो जीवो सामाइयं सयं चेव । १५२६ सामायिक में उपयोग रखने वाला आत्मा स्वयं ही सामायिक हो जाता है। (२९८) असुभो जो परिणामो सा हिंसा । १७६६ निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा का अशुभ परिणाम ही हिंसा है। चूणि साहित्य को सूक्तियाँ आचारांगचूणि (२९६) ण याणंति अप्पणो वि, किन्नु अण्णेसि । ११३३ . जो अपने को ही नहीं जानता, वह दूसरों को क्या जानेगा? (३००) अप्पमत्तस्स णत्थि भयं, गच्छतो चिट्टतो भूजमाणस्स बा।।३।४ अप्रमत्त (सदा सावधान) को चलते, खड़े होते, कहीं भी कोई भय नहीं है। (३०१) विवेगो मोक्खो। १७१ वस्तुतः विवेक ही मोक्ष है। (३०२) जइ वणवासमित्तेणं नाणी जाव तवस्सी भवति, तेण सीहवग्धादयो वि। ११७१ यदि कोई वन में रहने मात्र से ही ज्ञानी और तपस्वी हो जाता है, तो फिर सिंह, बाध आदि भी ज्ञानी, तपस्वी हो सकते हैं। (३०३) छहा जाव सरीरं, ताव अस्थि । १७३ जब तक शरीर है तब तक भूख है। सूत्राकृतांगणि (३०४) आरंभपूर्वको परिग्रहः । शरार परिग्रह आरम्मपूर्वक होता है। (३०५) चत्तं न दूषयितव्यं । १०।२ कर्म करो, किन्तु मन को दूषित न होने दो। (३०६) समाधिनमि रागद्वेषपरित्यागः । श२२२ रागद्वेष का त्याग ही समाधि है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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