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आगम साहित्य के सुभाषित ६६७ (२८५) णेहरहितं तु फरुसं । २६०८
स्नेह से रहित वचन 'परुष-कठोर वचन' कहलाता है। (२५६) अलं विवाएण णे कतमुहे हिं । २६१३
कृतमुख (विद्वान) के साथ विवाद नहीं करना चाहिए। (२८७) आसललिअं वराओ, चाएति न गद्दभो काउं। २६२८
शिक्षित अश्व की क्रीड़ाएं विचारा गर्दम कैसे कर सकता है ? (२८) राग-होस-विमुक्को सीयघरसमो य आयरिओ। २७९४
राग-द्वष से रहित आचार्य शीतगृह (सब ऋतुओं में एक समान सुख
प्रद भवन) के समान हैं। (२८९) जो जस्स उ पाओग्गो, सो तस्स तहिं तु दायव्वो।
-नि०भा०५२९१ ब० भा०३३७० जो जिसके योग्य हो, उसे वही देना चाहिए। (२६०) जागरह ! णरा णिच्च, जागरमाणस्स बढ़ते बुद्धी। जो सुवति न सो सुहितो, जो जग्गति सो सया सहितो॥
-नि० भा० ५३०३; बृ० भा० ३२८३ मनुष्यो ! सदा जागते रहो, जागने वाले की बुद्धि सदा वर्षमान रहती है। जो सोता है वह सुखी नहीं होता । जाग्रत रहने वाला ही सदा सुखी
रहता है। (२९१) सुवइ य अजगर भूतो, सयं पि से णासती अमयभूयं । होहिति गोणभूयो, णट्ठमि सूये अमय भूये ॥
-नि० भा० ५३०५ बृह. भा० ३३८७ जो अजगर के समान सोया रहता है, उसका अमृत स्वरूप श्रुत (ज्ञान) नष्ट हो जाता है, और अमृतस्वरूप श्रुत के नष्ट हो जाने पर व्यक्ति एक
तरह से निरा बैल हो जाता है। आवश्यकनियुक्तिभाष्य (२९२) सब्वे अ चक्कजोही, सव्वे अहया सचक्केहि । ४३
जितने भी चकयोधी (अश्वग्रीव, रावण आदि प्रतिवासुदेव) हुए हैं वे
अपने ही चक्र से मारे गए हैं। (२९३) उवउत्तो जयमाणो, आया सामाइयं होइ । १४६
यतनापूर्वक साधना में यत्नशील रहने वाला आत्मा ही सामायिक है। ओधनियुक्तिभाष्य (२९४) नत्थि छहाए सरिसया वेयणा । २९०
संसार में भूख के समान कोई वेदना नहीं है।