SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 695
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (२७४) न य मूल विभिन्नए घडे, जलमादीणि धलेइ कण्हुई । ४३६३ जिस घड़े की पेंदी में छेद हो गया हो, उसमें जल आदि कैसे टिक सकते हैं ? (२७५) जहा तवस्सी घुणते तवेणं, कम्मं तहा जाण तवोऽणुमंता । ४४०१ जिस प्रकार तपस्वी तप के द्वारा कर्मों को घुन डालता है, वैसे ही तप का अनुमोदन करने वाला भी । (२७६) तुल्लम्मि अवराधे, परिणामवसेण होति णाणतं । ४६७४ बाहर में समान अपराध होने पर भी अन्तर में परिणामों की तीव्रता व मन्दता सम्बन्धी तरतमता के कारण दोष की म्यूनाधिकता होती है। (२७७) न उ सच्छंदता सेया, लोए किमुत उत्तरे । बृह० भा० पीठिका ८६ स्वच्छंदता लौकिक जीवन में भी हितकर नहीं है, तो लोकोत्तर जीवन (साधक जीवन) में कैसे हितकर हो सकती है ? व्यवहारभाष्य (२७८) नवणीयतुल्ल हियया साहू । ७ १६५ साघुजनों का हृदय नवनीत (मक्खन) के समान कोमल होता है। (२७९) सब्वजगुज्जोयकरं नाणं, नाणेण नज्जए चरणं । ७।२१६ ज्ञान विश्व के समग्र रहस्यों को प्रकाशित करने वाला है। ज्ञान से हो चारित्र (कर्तव्य) का बोध होता है। (२८०) नाणंमि असंतंमि, चरितं वि न विज्जए । ७७२१७ ज्ञान नहीं है, तो चारित्र मी नहीं है । निशीथभाष्य (२८१) अत्यधरो तु पमाणं, तित्थगरमुहुग्गतो तु सो जम्हा । २२ सूत्रधर (शब्द पाठी ) की अपेक्षा अयंधर (सूत्र रहस्य का ज्ञाता) को प्रमाण मानना चाहिए, क्योंकि अर्थ साक्षात् तीर्थंकरों की वाणी से निःसृत है। (२८२) गाणी ण विणा णाणं । ७५ ज्ञान के बिना कोई ज्ञानी नहीं हो सकता । (२८३) धिती तु मोहस्स उवसमे होति । ८५ मोह का उपशम होने पर ही घृति होती है । (२८४) णा णज्जोया साहू । २२५ वृह० भा० ३४५३ साधक ज्ञान का प्रकाश लिए हुए जीवन यात्रा करता है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy