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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
(२७४) न य मूल विभिन्नए घडे, जलमादीणि धलेइ कण्हुई । ४३६३
जिस घड़े की पेंदी में छेद हो गया हो, उसमें जल आदि कैसे टिक सकते हैं ?
(२७५) जहा तवस्सी घुणते तवेणं, कम्मं तहा जाण तवोऽणुमंता । ४४०१ जिस प्रकार तपस्वी तप के द्वारा कर्मों को घुन डालता है, वैसे ही तप का अनुमोदन करने वाला भी ।
(२७६) तुल्लम्मि अवराधे, परिणामवसेण होति णाणतं । ४६७४
बाहर में समान अपराध होने पर भी अन्तर में परिणामों की तीव्रता व मन्दता सम्बन्धी तरतमता के कारण दोष की म्यूनाधिकता होती है।
(२७७) न उ सच्छंदता सेया, लोए किमुत उत्तरे । बृह० भा० पीठिका ८६ स्वच्छंदता लौकिक जीवन में भी हितकर नहीं है, तो लोकोत्तर जीवन (साधक जीवन) में कैसे हितकर हो सकती है ?
व्यवहारभाष्य
(२७८) नवणीयतुल्ल हियया साहू । ७ १६५
साघुजनों का हृदय नवनीत (मक्खन) के समान कोमल होता है। (२७९) सब्वजगुज्जोयकरं नाणं, नाणेण नज्जए चरणं । ७।२१६
ज्ञान विश्व के समग्र रहस्यों को प्रकाशित करने वाला है। ज्ञान से हो चारित्र (कर्तव्य) का बोध होता है।
(२८०) नाणंमि असंतंमि, चरितं वि न विज्जए । ७७२१७ ज्ञान नहीं है, तो चारित्र मी नहीं है ।
निशीथभाष्य
(२८१) अत्यधरो तु पमाणं, तित्थगरमुहुग्गतो तु सो जम्हा । २२
सूत्रधर (शब्द पाठी ) की अपेक्षा अयंधर (सूत्र रहस्य का ज्ञाता) को प्रमाण मानना चाहिए, क्योंकि अर्थ साक्षात् तीर्थंकरों की वाणी से निःसृत है।
(२८२) गाणी ण विणा णाणं । ७५
ज्ञान के बिना कोई ज्ञानी नहीं हो सकता । (२८३) धिती तु मोहस्स उवसमे होति । ८५
मोह का उपशम होने पर ही घृति होती है । (२८४) णा णज्जोया साहू । २२५ वृह० भा० ३४५३
साधक ज्ञान का प्रकाश लिए हुए जीवन यात्रा करता है।