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________________ आगम साहित्य के सुभाषित ६६५ जो साधक गुरुजनों के समक्ष मन के समस्त शल्यों (काटों) को निकाल कर आलोचना, निदा (आत्मनिंदा) करता है, उसकी आत्मा उसी प्रकार हलकी हो जाती है जैसे शिर का भार उतार देने पर भारवाहक । बृहत्कल्पभाष्य (२६३) पावाणं जदकरणं, तदेव खलु मंगलं परमं। ८१४ पाप कर्म न करना ही वस्तुतः परम मंगल है। (२६४) न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झाय समं तवोकम्मं । ११६६ स्वाध्याय के समान दूसरा तप न अतीत में कभी हमा, न वर्तमान में कहीं है, और न भविष्य में कभी होगा। (२६५) तं तु न विज्जइ सज्झं, जंधिइमंतो न साहेइ । १३५७ वह कौन सा कठिन कार्य है, जिसे धैर्यवान् व्यक्ति सम्पन्न नहीं कर सकता ? (२६६) धंत पि दुद्धकंखी न लभइ दुद्ध अघेणूतो। १९४४ दूध पाने की कोई कितनी ही तीव्र आकांक्षा क्यों न रखे, पर बांझ गाय से कमी दूध नहीं मिल सकता। (२६७) अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी। २७११ धार्मिक जनों में परस्पर वात्सल्य माव की कमी होने पर सम्यग्दर्शन की हानि होती है। (२६८) अकसायं खु चरितं, कसायसहिओ न संजओ होइ । २७१२ अकषाय (वीतरागता) ही चारित्र है। अतः कषायभाव रखने वाला संयमी नहीं होता। (२६९) जो पुण जतणारहिओ, गुणो वि दोसायते तस्स । ३१८१ जो यतनारहित है, उसके लिए गुण भी दोष बन जाते हैं। (२७०) वसुंधरेयं जह वीरभोज्जा । ३२५४ यह वसुंधरा बीरभोग्या है। (२७१) ण सुत्तामत्थं अतिरिच्च जाती। ३६२७ सूत्र अर्थ (व्याख्या) को छोड़कर नहीं चलता है। (२७२) ण भूसणं भूसयते सरीरं, विभूसणं सील हिरी य इथिए। ४११८ नारी का आभूषण शील और लज्जा है । बाह्य आभूषण उसको शोमा नहीं बढ़ा सकते। (२७३) बाला य बुड्ढा य अजंगमा य, लोगे वि एते अणुकंपणिज्जा। ४३४२ बालक, वृद्ध और अपंग व्यक्ति, विशेष अनुकम्पा (दया) के पात्र होते हैं।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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