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________________ १६४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (२५५) एगतेण निसेहो, जोगेसु न देसिओ विही वाऽवि । दलिअं पप्प निसेहो, होज्ज विही वा जहा रोगे ।। ५५ जिन शासन में एकांत रूप से किसी भी क्रिया का न तो निषेध है, और न विधान ही है । परिस्थिति को देखकर ही उनका निषेष या विधान किया जाता है, जैसा कि रोग में चिकित्सा के लिए। (२५६) मुत्तनिरोहेण चक्खू, वच्चनिरोहेण जीवियं चयइ । १९७ अत्यधिक मूत्र के वेग को रोकने से आँखें नष्ट हो जाती हैं और तीन मलवेग को रोकने से जीवन ही नष्ट हो जाता है। (२५७) हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा। न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ॥ ५७८ जो मनुष्य हिताहारी हैं, मिताहारी हैं और अल्पाहारी हैं ! उन्हें किसी वैद्य से चिकित्सा करवाने की आवश्यकता नहीं, वे स्वयं ही अपने वैद्य हैं, चिकित्सक हैं। (२५८) अतिरेगं अहिगरणं । ७४१ आवश्यकता से अधिक एवं अनुपयोगी उपकरण (सामग्री) अधिकरण ही (क्लेशप्रद एवं दोषरूप) हो जाते हैं। (२५९) आया चेव अहिंसा, आया हिंस त्ति निच्छओ एसो। जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो ।। ७५४ निश्चयदृष्टि से आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा । जो प्रमत्त है वह हिंसक है और जो अप्रमत्त है वह अहिंसक है। (२६०) सुचिरं पि अच्छमाणो, वेरुलिओ कायमणिओमीसे। न य उवेइ कायभावं पाहनगुणेण नियएण ॥ ७७२ वैडूर्यरत्न काच की मणियों में कितने ही लम्बे समय तक क्यों न मिला रहे, वह अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण रत्न ही रहता है, कभी काच नहीं होता (सदाचारी उत्तम पुरुष का जीवन भी ऐसा ही होता है।) (२६१) जह बालो जंपतो, कज्जमकज्ज व उज्जुयं भणइ। तं तह आलोएज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ॥८०१ बालक जो भी उचित या अनुचित कार्य कर लेता है, वह सब सरल भाव से कह देता है। इसी प्रकार साधक को भी गुरुजनों के समक्ष दंम और अभिमान से रहित होकर यथावं आत्मालोचन करना चाहिये । (२६२) उद्धरिय सव्वसल्लो, आलोइय निदिओ गुरुसगासे । होइ अतिरेगलहुओ, ओहरियभरो व्व भारवहा ।। ८०६
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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