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________________ आगम साहित्य के सुभाषित ६६३ (२४५) णाणं पयासगं सोहओ तवो, संजमो य गुत्तिकरो। तिण्ड पि समाजोगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ॥१०३ ज्ञान प्रकाश करने वाला है, तप विशुद्धि एवं संयम पापों का निरोध करता है। तीनों के समयोग से ही मोक्ष होता है-यही जिनशासन का कथन है। (२४६) केवलियनाणलंभो, ननस्थ खए कसायाणं । १०४ क्रोधादि कषायों को क्षय किए बिना केवलज्ञान (पूर्ण ज्ञान) की प्राप्ति नहीं होती। (२४७) तित्थपणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं । ५६७ तीर्थकर देव प्रथम तीर्थ (उपस्थित संघ) को प्रणाम करके फिर जन कल्याण के लिए लोकभाषा में उपदेश करते हैं । (२४८) सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा । ८०२ सामायिक की साधना करता हुआ श्रावक उस समय श्रमण के तुल्य हो जाता है। (२४९) अइनिद्धेण विसया उइज्जति । १२६३ अतिस्निग्ध आहार करने से विषय-कामना उद्दीप्त हो उठती है। (२५०) थोवाहारो थोवभणिओ य, जो होइ थोवनिदो य । थोवोवहि-उवगरणो, तस्स ह देवा वि पणमंति ॥ १२६५ जो साधक थोड़ा खाता है, थोड़ा बोलता है, थोड़ी नींद लेता है और योड़ी ही धर्मोपकरण की सामग्री रखता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। (२५१) चित्तस्सेगग्गया हवइ झाणं । १४५६ किसी एक विषय पर चित्त को स्थिर-एकाग्र करना ध्यान है। (२५२) अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवू त्ति एव कयबुद्धि । दुक्ख-परिकिलेसकर, छिद ममत्तं सरीराओ॥ १५४७ 'यह शरीर अभ्य है, आत्मा अन्य है।' साधक इस तस्वबुद्धि के द्वारा दुःख 1. एवं क्लेशजनक शरीर की ममता का त्याग करे। ओधनियुक्ति (२५३) जे जत्तिआ अ हेउं भवस्स, ते चेव तत्तिआ मुक्खे । ५३ जो और जितने हेतु संसार के हैं, वे और उतने ही हेतु मोक्ष के हैं। (२५४) इरिआवहमरिआ, जे चेव हवंति कम्मबंधाय । अजयाणं ते चेव उ, जयाण निव्वाणगमणाय ॥ ५४ जो ईर्यापथिक (गमनागमन) आदि क्रियाएँ असंयत के लिए कर्मबंध का कारण होती हैं, वे ही यतनाशील के लिए मुक्ति का कारण बन जाती हैं।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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