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________________ ६६२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (२३६) राइसरिसवमित्ताणि, परिछिहाणि पाससि । अप्पणो बिल्लमित्ताणि, पासंतो वि न पाससि ।। १४० दुर्जन दूसरों के राई और सरसों जितने दोष भी देखता रहता है, किन्तु अपने बिल्व (बेल) जितने बड़े दोषों को देखता हुआ भी अनदेखा कर देता है। (२३७) भावंमि उ पब्वज्जा आरंभपरिग्गहच्चाओ। २६३ हिंसा और परिग्रह का त्याग ही वस्तुतः भाव प्रव्रज्या है। (२३८) भद्दएणेव होअव्वं पावइ भद्दाणि भद्दओ। सविसो हम्मए सप्पो, भेरुडो तत्थ मुच्चइ ॥ ३२६ मनुष्य को मद्र (सरल) होना चाहिए, भद्र को ही कल्याण की प्राप्ति होती है। विषधर सौप ही मारा जाता है, निर्विष को कोई नहीं मारता। (२३९) जो भिदेइ खुहं खलु, सो भिक्खू भावओ होइ । ३७५ जो मन की भूख (तृष्णा) का भेदन करता है, वही भाव रूप में भिक्षु है। आवश्यकनियुक्ति (२४०) अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । ६२ तीर्थकर की वाणी अर्थ (भाव) रूप होती है, और निपुण गणधर उसे सूत्र-बद्ध करते हैं। (२४१) वाएण विणा पोओ, न चएइ महण्णावं तरिउं। ६५ अच्छे से अच्छा जलयान भी हवा के बिना महासागर को पार नहीं कर सकता। (२४२) निउणो वि जीवपोओ, तवसंजममारुअविहणो। ६६ शास्त्रज्ञान में कुशल साधक भी तप, संयम रूप पवन के बिना संसार सागर को तैर नरीं सकता। (२४३) चरणगुणविप्पहीणो, बुड्डइ सुबहु पि जाणंतो। ६७ जो साधक चारित्र के गुण से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी संसार समुद्र में डूब जाता है। (२४४) सुबहुंपि सुयमहीयं, कि काही चरणाविष्पहीणास्स ? अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि॥९८ शास्त्रों का बहुत-सा अध्ययन भी चारित्र-हीन के लिए किस काम का ? क्या करोड़ों दीपक जला देने पर भी अंधे को कोई प्रकाश मिल सकता है ?
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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