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आगम साहित्य के सुभाषित
(२२९) न हु कइतवे समणो । २२४ जो दंभी है, वह श्रमण नहीं हो सकता ।
सूत्रकृताङ्गनि क्ि
(२३०) जह वा विसगंडूसं, कोई घेत्तू ण नाम तुव्हिक्को । अणेण अदीसंतो, किं नाम ततो न व मरेज्जा ।। ५२
जिस प्रकार कोई चुपचाप लुक-छिपकर विष पी लेता है, तो क्या वह उस विष से नहीं मरेगा ? अवश्य मरेगा। उसी प्रकार जो छिपकर पाप करता है, तो क्या वह उससे दूषित नहीं होगा ? अवश्य होगा ।
(२३१) अवि य हु भारियकम्मा, नियमा उक्कस्स निरयठितिगामी ।
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तेऽवि हु जिणोवदेसेण, तेणेव भवेण सिज्यंति ॥ १६० ॥ कोई कितना ही पापात्मा हो और निश्चय ही उत्कुष्ट नरक स्थिति को प्राप्त करने वाला हो, किन्तु वह भी वीतराग के उपदेश द्वारा उसी भव में मुक्ति लाभ कर सकता है।
दशकालिक नियुक्ति
( २३२) जीवाहारो भण्णइ आयारो । २१५
तप-संयम रूप आचार का मूल आधार आत्मा (आत्मा में श्रद्धा) ही हैं। (२३३) वयणविभत्तिअकुसलो, वओगयं बहुविहं अयाणंती । जइ विन भासइ किंची, न चेव वयगुत्तयं पत्तो ॥ वयणविभत्तो कुसलो, वओगयं बहुविहं वियागंतो । दिवसं पि भासमाणो, तहावि वयगुत्तयं पत्तो ॥ २६०-२६१ जो वचन कला में अकुशल है, और वचन की मर्यादाओं से अनभिज्ञ है, वह कुछ भी न बोले, तब भी 'वचनगुप्त' नहीं हो सकता ।
जो वचन कला में कुशल है और वचन की मर्यादा का जानकार है, वह दिन भर भाषण करता हुआ भी 'वचनगुप्त' कहलाता है। (२३४) जस्स वि अ दुष्पणिहिआ होंति कसाया तवं चरंतस्स ।
सो बालतवस्सीवि व गयण्हाणपरिस्समं कुणइ ॥ ३००॥ जिस तपस्वी ने कषायों को निगृहीत नहीं किया, वह बाल (अज्ञान) तपस्वी है । उसके तपरूप में किये गए सब कायकष्ट गज-स्नान की तरह व्यर्थ हैं ।
उत्तराध्ययननियुक्ति
( २३५) सुहिओ हु जणो न बुज्झई । १४०
सुखी मनुष्य प्रायः जल्दी नहीं जग पाता ।