________________
६६०
जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
(२१८) यावच्चे तित्थयरं नामगोत्तं कम्मं निबन्धई | २६१४३
वैयावृत्य (सेवा) से आत्मा तीर्थंकर होने जैसे उत्कृष्ट पुण्य कर्म का उपार्जन करता है।
(२१९ ) भवकोडी - संचियं कम्मं, तवसा निज्ञ्जरिज्जइ । ३०|६
साधक करोड़ों भवों के संचित कर्मों को तपस्या के द्वारा क्षीण कर देता है ।
आगमों का व्याख्या साहित्य
territo
( २२० ) अंगाणं कि सारो ? आयारो । १६
जिनवाणी (अंग - साहित्य) का सार क्या है ? 'आचार' सार है। (२२१) सारो परूवणाए चरणं, तस्स वि य होइ निव्वाणं |१७|
प्ररूपणा का सार है-आचरण ।
आचरण का सार ( अन्तिम फल ) है - निर्वाण ।
( २२२) एक्का मणुस्सजाई |१६|
समग्र मानव जाति एक है ।
(२२३) सायं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंति । ६४
कुछ लोग अपने सुख की खोज में दूसरों को दुःख पहुंचा देते हैं । (२२४) कामनियत्तमई खलु, संसारा मुच्चई खिप्पं । १७७
जिसकी मति, काम (वासना) से मुक्त है, वह शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाता है।
(२२५) संसारस्स उ मूलं कम्मं तस्स वि हुंति य कसाया। १८६ संसार का मूल कर्म है और कर्म का मूल कषाय है ।
(२२६) अभयकरो जीवाणं, सीयधरो संजमो भवइ सीओ । २०६
प्राणी मात्र को अभय करने के कारण संयम शीतगृह (वातानुकूलित गृह) के समान शीतल अर्थात् शान्तिप्रद है ।
(२२७) न हु बालतवेण मुक्खुत्ति । २१४
अज्ञानतप से कभी मुक्ति नहीं मिलती ।
(२२८) न जिणइ अंधो पराणीयं । २१६
अंधा कितना ही बहादुर हो, शत्रुसेना को पराजित नहीं कर सकता । इसी प्रकार अज्ञानी साधक भी अपने विकारों को जीत नहीं सकता ।