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आगम साहित्य के सुभाषित ६५६
जो रात्रियां बीत जाती हैं, वे पुन: लौटकर नहीं आतीं। किन्तु जो धर्म का आचरण करता रहता है, उसकी रात्रियों सफल हो जाती हैं।
(२०६) देव-दानव - गंधव्वा, जक्ख रक्खस्स किन्नरा ।
बंभारि नमसंति, दुक्करं जे करंति तं ॥ १६।१६
देवता, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी ब्रह्मचर्य के साधक को नमस्कार करते हैं, क्योंकि वह बहुत दुष्कर कार्य करता है ।
(२०७ ) जीवियं चैव रूवं च, विज्जुसंपायचंचलं । १८ । १३ जीवन और रूप बिजली की चमक की तरह चंचल हैं । (२०८) भासिय हियं सच्चं । १६ २७
सदा हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए। (२०) असिधारागमणं, चेव, दुक्करं चरिउं तवो । १६।३८
तप का आचरण तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर है। (२१०) न तं अरी कंठछित्ता करेई, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा | २०|४८ गर्दन काटने वाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं करता, जितनी हानि दुराचार में प्रवृत्त अपना ही स्वयं का आत्मा कर सकता है।
(२११) अणुन्नए नावणए महेसी, न यावि पूयं गरिहं च संजए । २१।२० जो पूजा-प्रशंसा सुनकर कभी अहंकार नहीं करता, और निन्दा सुनकर स्वयं को हीन ( अवनत ) नहीं मानता, वही वस्तुतः महर्षि है ।
(२१२) सज्झाएवा निउत्तेण, सम्वदुक्ख विमोक्खणे । २६।१० स्वाध्याय करते रहने से समस्त दुःखों से मुक्ति मिलती है । (२१३) सज्झायं च तओ कुज्जा, सव्वभाव विभावणं । २६।३७ स्वाध्याय सब भावों (विषयों) का प्रकाश करने वाला है। (२१४) नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं । २६२६
सम्यक्त्व के अभाव में चारित्र नहीं हो सकता । (२१५) सामाइएण सावज्जजोगविरहं जणयई । २६८
सामायिक की साधना से पापकारी प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है।
(२१६) खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ । २६।१७ क्षमापना से आत्मा में प्रसन्नता की अनुभूति होती है । (२१७) सज्झाएणं नाणावर णिज्जं कम्मं खवेई । २६।१८
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स्वाध्याय से ज्ञानावरण (ज्ञान को आच्छादन करने वाले) कर्म का क्षय होता है ।