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६५८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा (१९४) संसयं खलु सो कुणइ, जो मग्गे कुणइ धरं । ६।२६
: साधना में संशय वही करता है, जो कि मार्ग में ही घर करना (रुक जाना)
चाहता है। (१६५) जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिए।
एग जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।। ६।३४ भयंकर युद्ध में हजारों-हजार दुन्ति शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा अपने
आपको जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है। (१९६) सव्वं अप्पे जिए जियं । ।३६
एक अपने (विकारों) को जीत लेने पर सब को जीत लिया जाता है। (१९७) इच्छा हु आगाससमा अणंतिया । ६।४८
इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं। (१९८) कुसग्गे जह ओस बिन्दुए, थोवं चिट्ठइ लम्बमाणए।
एवं मणयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ १०२ जैसे कुशा (घास) की नोंक पर हिलती हुई ओस की बूंद बहुत थोड़े समय के लिए टिक पाती है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी क्षणभंगुर है।
अतएव हे गौतम ! क्षणभर के लिए भी प्रमाद न कर ! (१९६) विहुणाहि रयं पुरे कडं । ११३
पूर्वसंचित कर्म-रूपी रज को साफ कर ! (२००) दुल्लहे खुलु माणुसे भवे। १०४
मनुष्य जन्म निश्चय ही बड़ा दुर्लभ है। (२०१) सक्खं खू दीसइ तवोविसेसो न दीसई जाइविसेस कोई । १२१३७
तप (चरित्र) की विशेषता तो प्रत्यक्ष में दिखलाई देती है, किन्तु जाति की
.तो कोई विशेषता नजर नहीं आती। (२०२) सव्वे कामा दुहावहा । १३।१६
सभी काम-भोग अन्ततः दुःखावह (दुःखद ही) होते हैं। (२०३) कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं । १३१२३
कर्म सदा कर्ता के पीछे-पीछे (साथ) चलते हैं। (२०४) नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा, अमुत्तभावा वि य होइ निच्च । १४।१६
आत्मा आदि अमूर्त तत्त्व इन्द्रियग्राह्य नहीं होते। और जो अमूर्त होते हैं
वे अविनाशी नित्य भी होते हैं। (२०५) जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई ।
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जन्ति राइओ।। १४१२५